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________________ को त्यागने का जब दृढ़ संकल्प उत्पन्न होता है, तभी व्रत की उत्पत्ति होती है। नदी के दो किनारे उसके जलप्रवाह को नियंत्रित रखते है, थामे रखते है और उसे छिन्न-भिन्न होने से रोकते हैं। इसी प्रकार जीवन शक्ति को केन्द्रित करने और योग्य दिशा में ही उसका उपभोग करने के लिये 'व्रतों की परमावश्यकता है। डोरी टट जाने पर पतंग की क्या हालत होती है ? उसे धूल में मिलना पड़ता है। ऐसे ही जीवन रूपी पतग को उन्नत रखने के लिए मनुष्य को व्रतो की डोरी' के साथ बधे रहने की आवश्यकता है। मूलभूत दोष : पवित्रता की ओर अग्रसर होने के लिये सांसारिक पाप-दोषो को जानना और उनसे बचने की तरकीब करना व्रतधारी गृहस्थ अथवा साधु के लिये जरूरी है । संसार में प्राणियों के दोषो की गणना करना संभव नही। कुछ मूलभूत दोष ऐसे हैं जिनसे अनेक अन्य दोष उत्पन्न होते है। उन्हें दूर करने का व्रत गृहस्थ व साधु को लेना है : -हिंसा, असत्य, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह उपर्युक्त पांच दोषों के कारण ही मानवता संत्रस्त और दुःखी हो रही है और कुचली जा रही है। इन्हीं के दुष्प्रभाव से मनुष्य मनुष्य नही रहता बल्कि दानव, राक्षस, चोर, लुटेरा, अनाचारी, लोभी, स्वार्थी, प्रपची, मिथ्याभावी आदि बन जाता है। यही दोष है जो आत्मा को निज-स्वरूप प्राप्त करने मे बाधक होते हैं । ये आत्मा के वास्तविक शन हैं।
SR No.010210
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShadilal Jain
PublisherAdishwar Jain
Publication Year
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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