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________________ वह कष्टो को विशुद्धि के लिये वरदान मानते थे और उन्हे धैर्य से झेलते थे । अधीर को कष्ट सहना पड़ता है, परन्तु धीर कष्ट को सहर्ष सहते हैं। जो जान बूझकर कष्टो को न्यौता दे, उसे उनके आने पर परति (दुःख) और न आने पर रति (प्रसन्नता) नही हो सकती। रति और अरति-ये दोनो-साधना की बाधाएं है। महावीर इना दोनों को पचा लेते थे। वह मध्यस्थ थे। देवो ने भी उनके समक्ष घोर कष्ट उपस्थित किये, उन्हे लक्ष्य से विचलित करने के लिए कोई कसर नही छोड़ी। उन्होने गन्ध, शब्द स्पर्श सम्बन्धी अनेको कष्ट सहे । महावीर ने इन समस्त कष्टो को 'समभाव' से सहन किया। साधना सफल होने को थी। ग्रीष्म ऋतु का वैशाख महीना था। शुक्ल दशमी का दिन था। पिछले पहर का समय, विजय मुहूर्त और उत्तरा फाल्गुनी का योग था। भिय ग्राम नगर के बाहर ऋजु बालिका नदी के उत्तरी तट पर, 'श्यामाक गाथापति' की कृषि भूमि मे, व्यावर्त नामक चैत्य के निकट शाल वृक्ष के नीचे गोदोहिका प्रासन मे बैठे हुए, ईशान कोण की ओर म ह करके सूर्य का आताप ले रहे थे । दो दिन का निर्जल उपवास था। वह 'शुक्ल ध्यान में लीन थे। बारहवी भूमिका (गुणस्थान) में पहुचते ही उनके मोह का बन्धन पूर्णतः टूट गया। वह वीतराग बन गये। तेरवी भूमिका का प्रवेश द्वार खुला । वही ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय के बन्धन भी पूर्णतः टूट गये । वह अनन्त ज्ञानी, अनन्त दर्शी, अनन्त आनन्दमय तथा अनन्त वीर्ययुक्त बन गये। महावीर "केवली भगवान्" बन गये। - - - -
SR No.010210
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShadilal Jain
PublisherAdishwar Jain
Publication Year
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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