SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थकरो के जीवन की घटनाए भी अधिक चित्रित हुई है, और उनमें विवरणात्मकता लाने का प्रयत्न दिखाई देता है । रग लेप में विचित्रता और चटकीलापन पाया है। इसी काल मे सुवर्ण रग का प्रयोग प्रथम बार दृष्टिगोचर होता है । यह ईरानी चित्र कला (मुगल शैली) का प्रभाव है। 6. उपर्युक्त शैली (सुवर्ण रग) की प्रतिनिधि रचनाए अधिकाश कल्पसूत्र की प्रतियो में पाई जाती है, जिसमे सबसे महत्वपूर्ण ईडर के मानदजी मगलजी पेढी के ज्ञान भन्डार की वह प्रति है जिसमे 34 चित्र है, जो महावीर के और कुछ पार्श्वनाथ व नेमिनाथ तीर्थकरो की जीवन घटनामो से सम्बन्ध है। इसमे स्वर्ण रग का प्रथम प्रयोग हुअा है, आगे चलकर तो ऐसी रचनाएँ भी मिलती है, जिनमें न केवल चित्रो मे ही सुवर्ण रग का प्रचुर प्रयोग है, किन्तु समस्त ग्रथ-लेख ही सवर्ण की स्याही से किया गया है । अथवा समस्त भूमि ही सुवर्ण-लिप्त की गई और उस पर चॉदी की स्याही से लेखन किया गया है। __ कल्पसूत्र की आठ ताड़पत्र तथा बीस कागज की प्रतियों पर से लिये हुए कुछ 374 चित्रों सहित कल्पसूत्र का प्रकाशन भी हो चुक! है । (पवित्र कल्पसूत्र अहमदाबाद, 1952) प्रोफेसर नार्मन ब्राउन ने अपने "दि स्टोरी प्राफ कालक" (वाशिगटन, 1933) नामक ग्रन्थ में 39 चित्रों का परिचय कराया है। साराभाई नवाव ने अपने कालक कथा संग्रह (अहमदाबाद, 1958) में 6 ताड़पत्र और 9 कागज की प्रतियो पर से 88 चित्र प्रस्तुत किये हैं। डा0 मोती चन्द ने अपने 'जैन मिनिएचर पेंटिंग्स फ्राम वैस्टर्न
SR No.010210
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShadilal Jain
PublisherAdishwar Jain
Publication Year
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy