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________________ (४३. ).. पिण संतोष ने रे । राज नीत सावधान रे ॥ गो० ॥ १२ ॥ पछवा रूप मेढी सुत छै । चक्ष भुत आधार। सगलाही दोधी अगन्यां रे। करै राज सुविचार रे। गो० ॥ १३ ॥ तिगाकाले में तिण समै रे । देश कुणाल ऋद्धवंत । नगरी सारथौ मोटको रे । कोटग बाग सोहंत र ॥गो॥१४॥ तिरह नगरी रो अधिपति रे । जित शनु सिरदार । प्रदेशौ के छै घणो रे मांहों मांही प्यार रे ॥ गो० ॥ १५ ॥ राय प्रदेशी एकदा रे । भारी भेटणो सभाय। चित स्वारथी में मेलियो रे । दियो जित शव ने जाय रे ॥ गो० ॥ १६ ॥ राज पंथ आवास में रे । चित में उतास्यो नाय । भारी लीला भोगवेरे नाटक में दिन जाय रे । गो० ॥ १७ ॥ ॥दोहा॥ देश कुखालो दोपतो, साध घणा तिण माय । आरज क्षेत्र अति भलो, साधां रौ घणौ चाहय॥१३ . ज्यां ज्यां विचरे साधुजी, कर घणो उद्योत। धर्म दीपावे जिन तणो, टाले मिथ्या छोत ॥२॥ लेड्ससा जिनवर तणा, साध घणा तिमवार । च्चार ज्ञान तथा धनी, केशी नाम कुमार ॥३॥
SR No.010206
Book TitleJain Bhajan Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatehchand Chauthmal Karamchand Bothra Kolkatta
PublisherFatehchand Chauthmal Karamchand Bothra
Publication Year
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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