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________________ ( ३६ ) पश्चिम दिश सात अगणका तागा । वेकुव्या साते हो श्रतम रिख रा देवता रे । सार रे ॥ पु० ॥ १८ ॥ भद्रासण सोले हजार र े । सिंहासण रे चिहुँ दिशे । शोभायमान पु रचिया रूड़ चाकार रे ॥ ५० ॥ १६ ॥ दिसे घणोर् । रातै बर्ग विभाग | जगते सूरज जेहवा वलि इणसु' र अधिको जाण ॥ पु० ॥ २० ॥ वर्ण रस गंध फर्श नो रे । वर्ण को जिनराय । प्रधानिक बिमाण निपाय नें । कह्यो सूरियांभ में आयरे ॥ g० ॥ २१ ॥ सूरयाम सुग हर्यो घणो रे । वेठो सिंहासण चाय | बीजाई देवी देवता । तो बेठी ठिकाणे चाय रे ॥ ५० ॥ २२ ॥ वाजंत्र शब्द होता थकां रे । चागल पांछे थाट रे । पसवाड़ देवी देवतारे । एतो वह घणा गह घाट रे ॥ पु० ॥ २३ ॥ असंख्याता तिरका लोकना लंघ्या समुद्र मे होप | नंदीश्वर द्वीप श्रवियो र े । रुचक पर्वत समोर ॥ ० ॥ २४ ॥ देवनी ऋड्व संकोचतो र े । नम्ब दीप आयो धौर | अम्ब कम्पारे वागमें रे । जठे विचरे श्रौमहावीर रे ॥ पु ॥ २५ ॥ सूरियाभ ऋ सु परिवखोरे । अग्र महे नौ तौर । भाव भगत कोधो घणो । पछे बान्द्या महावीर रे || पु० ॥ २६ ॥ + }
SR No.010206
Book TitleJain Bhajan Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatehchand Chauthmal Karamchand Bothra Kolkatta
PublisherFatehchand Chauthmal Karamchand Bothra
Publication Year
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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