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________________ ( २० ) सा० सू० प्र० सूयगडांग; अ० १, उ० २ गा० १४, (१४) श्रावक ने केवल ज्ञानी प्ररुप्यां विना टूसरा धर्म मानणो नहौं । सा० सू. उववाई, प्रश्न२०. (१५) समयक्ती ने धर्म कोवल ज्ञानौ प्राप्यो मानणो दूसरो मानणो नहौं ! सा० सु० उत्तराध्ययन, अ० २८, गा० ३१, (१६ ) केवल जानी वी पाखंडियारी बचनांची खबर नही। जिकारे घशो अकालमरण बालमररह होसी । सा० सृ० उत्तराध्ययन, अ० ३६, गा० २६५, (१७) पर वचन सूई अर्थ परमार्थ शेष थाकता रह्या सोई सर्व अनर्थ । सा० स० उववाई, प्रश्न २०. (१८ ) केवलयां गे आचार सोई छमस्थ रो आचार, पोवला गे अनाचार सोई छमस्थ रो अनाबार। सा० स० प्र० आचारांग, अ० २, उ० ६. (१८) वत्तवया दोय कही-१ खसमय वत्तवय, २ पर समय वत्तवय । खममय वत्तवय की साधु तो प्राज्ञा देवे । परसमय बत्तवय में सात औगुण-अनर्थ १, अहित २, असंजम भाव ३, अक्रिया ४, उनमारग ५, उपयोग रहित ६, मिथ्यात ७ । सा० स० अनुयोगहार, ७ नब पूरी हुई जठे, (२०) केवली प्रकापियो एकन्त धर्म कह्यो । सा०
SR No.010206
Book TitleJain Bhajan Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatehchand Chauthmal Karamchand Bothra Kolkatta
PublisherFatehchand Chauthmal Karamchand Bothra
Publication Year
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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