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________________ । १०५ ।। . ॥ लड़ी २७ सत्ताइसमी॥ १ पुन्य धर्म के अधम दोनू नहीं,किणन्याय धर्म अधर्म जीव है, पुन्य अजीव है। . २ पाप धर्म के अधर्म दोन नहौं, किणन्याय धर्म अधम तो जीव के पाप अजीव छै। । ३ बध धर्म के अधर्म दोन नहौं, किणन्याय धर्म अधर्म तो जीव छै बध अजीव है। ४ कर्म अने धर्म एक के दोय दोय छै; किणन्याय कर्म तो अजीव के धर्म जीव छै। ५ पाप अने धर्म एक के दोय दोय छै; किणन्याय पाप तो अजीव छै; धर्म जीव छै। ६ अधर्म अने अधर्मास्ति एक के दोय दोय; किण-' न्याय अधर्म तो जीव के अधर्मास्ति अनौंव है। ७ धर्म अने धर्मास्ति एक के दोय दोय; किणन्याय ___धर्म तो जीव छै; धर्मास्ति अजीव छै। ८ धर्म अनें अधर्मास्ति एक के दोय दोय; किण__ न्याय धर्म तो जीव; अधर्मास्ति अजीव छै। ६ अधर्म अने धर्मास्ति एक के दोय दोय; किगा न्याय अधर्म तो जीव के धर्मास्ति अजीव के।
SR No.010206
Book TitleJain Bhajan Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatehchand Chauthmal Karamchand Bothra Kolkatta
PublisherFatehchand Chauthmal Karamchand Bothra
Publication Year
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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