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________________ २ पुन्य और धर्मास्ति एक के दोय, दोय, कि न्याय, पुन्य तो रूपी छै धर्मास्ति अरूपो छ। ३ धर्म और धर्मास्ति एक के दोय, दोय, किण न्याय, धर्म तो जीव छै, धर्मास्ति अजीव छै । ४ अधर्स और अधर्मास्ति एक के दोय दोय, किणन्याय, अधर्म तो जीव छै; अधर्मास्ति अजीव छै। ५ पुन्य अने पुन्धवाल एक के दोय दोय, किणा न्याय, पुन्य तो अजीव छै पुन्यवान जीव छै। ६ पाप अने पापी एकके दोय दोय, किणन्याय, पाप तो अजीव छै, पापी जीव छै। ७ कर्म अने कर्मा को करता एकको दोष दोय, किणन्याय, कर्म तो अजीव है, कारो करता जीव छै। ॥ लडी १९ उन्नीसमी॥ १ कर्म जीव के अजीव अजीव । २ कर्म रूपौक अरूपी रूपी छै ॥ ३ कम सावद्यक निरवद्य, दोन नहीं अजीव छ। ४ कर्म चोरफी साहूकार, दोन नहौं, अजीव छै। ___५ कम आना माहिक बाहर, दोन नहीं अजीव छ। '
SR No.010206
Book TitleJain Bhajan Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatehchand Chauthmal Karamchand Bothra Kolkatta
PublisherFatehchand Chauthmal Karamchand Bothra
Publication Year
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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