SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामाजिक नैतिकता के केनीय तत्व : महिला, मनासह बोर अपरिह हुई थी । कम से कम हिंसा ही श्रामण्य-जीवन की श्रेष्ठता का प्रतिमान था। सूत्रहतांग में आईक कुमार को विभिन्न मतों के श्रमणों से जो चर्चा है उसमें मूल प्रश्न यही है कि 'कौन सबसे अधिक अहिंसक है (देखिये सूत्रकृतांग, २६)। त्रस प्राणियों (पशु, पक्षी, कीट-पतंग आदि) की हिंसा तो हिंसा थी ही, किन्तु वानस्पतिक और सूक्ष्म प्राणियों की हिंसा को भी हिंसा माना जाने लगा था। मात्र इतना ही नहीं, मनसा, वाचा, कर्मणा, और कृत, कारित और अनुमोदित के प्रकारभेदों से नवकोटिक अहिंसा का विचार प्रविष्ट हुआ, अर्थात् मन, वचन और शरीर से हिंसा करना नहीं, करवाना नहीं और करनेवाले का अनुमोदन भी नहीं करना । बोद्ध और आजीवक परम्परा के श्रमणों ने भी इस नवकोटिक अहिंसा के आदर्श को स्वीकार कर उसके अर्थ को गहनता और व्यापकता प्रदान की। फिर भी बौद्ध परम्परा में षट्जीवनिकाय का विचार उपस्थित नहीं था। बौद्ध भिक्षु नदी-नालों के जल को छानकर उपयोग करते थे। दूसरे उनके यहाँ नवकोटि अहिंसा की यह अवधारणा भी स्वयं की अपेक्षा से थी दूसरा हमारे निमित्त क्या करता है इसका विचार नहीं किया गया, जब कि जैन परम्परा में श्रमण के निमित्त से की जाने वाली हिंसा का भी विचार किया गया । निर्ग्रन्थ परम्पग का कहना पा कि केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है कि हम मनसा, वाचा, कर्मणा हिंसा न करें, न करावें और न उसे अनुमोदन दें अपितु यह भी आवश्यक है कि दूसरों को हमारे निमित्त हिंसा करने का अवसर भी नहीं देखें और उनके द्वारा की गई हिंसा में भागीदार न बनें । यही कारण था कि जहां बुद्ध और बौद्ध भिक्षु निमन्त्रित भोजन को स्वीकार करते थे वहाँ निर्ग्रन्थ परम्परा में औद्देशिक आहार भी अग्राह्य माना गया था, क्योंकि उसमें नैमित्तिक हिंसा के दोष की सम्भावना थी। यद्यपि पिटकग्रन्थों में बौद्ध भिक्ष के लिए ऐसा भोजन निपिद्ध माना गया है जिसमें उसके लिए प्राणीहिमा की गयी हो और वह इस बात को जानता हो या उसने ऐसा सुना हो। फिर भी यह अतिशयोक्ति नहीं है कि अहिमा को जितना व्यापक अर्थ जैन परम्परा में दिया गया है, उतना अन्यत्र अनु. पलब्ध ही है। जैन और बौद्ध परम्पराओं में अहिंसा सम्बन्धी जो खणन-मण्डन हुआ, उसके पीछे सैदान्तिक मतभेद न होकर उसकी व्यावहारिकता का प्रश्न ही प्रमुख रहा है । पं० मुम्बलालजी लिखते हैं, दोनों की अहिंसा सम्बन्धी व्याख्या में कोई तात्त्विक मतभेद नहीं-जैन परम्परा ने नवकोटिक अहिंसा की सूक्ष्म व्यवस्था को अमल में लाने के लिए जो बाह्य प्रवृत्ति को विशेष नियन्त्रित किया, वह बौद्ध परम्पग ने नहीं किया। जीवन सम्बन्धी बाह्य प्रवृत्तियों के अति नियन्त्रण और मध्यवर्गीय शैथिल्य के प्रबल भेद में से ही बौद्ध और जैन परम्पराएं आपस में खण्डन-मण्डन में प्रवृत्त हुई । जब हम दोनों परम्परामों के खण्डन-मण्डन को तटस्थ भाव से देखते हैं तब निःसंकोच कहना पड़ता है कि बहुधा दोनों ने एक-दूसरे को गलत रूप से ही समझा है। इसका एक
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy