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________________ ७२ जन, बोड और गीता का समाव बर्मन माना गया । इस प्रकार उनमें धर्म के नाम पर की जाने वाली हिंसा को समर्थन ही दिया गया । वेदों में अहिंसा की अवधारणा का अर्थविस्तार उतना ही है जितना कि यहूदी और इस्लाम धर्म में । वैदिक धर्मकी पूर्व-परम्परा में भी अहिंसा का सम्बन्ध मानव जाति तक ही सीमित रहा । 'मा हिंस्यात् सर्वभूतानि' का उद्घोष तो हुआ, लेकिन व्यावहारिक जीवन में वह मानव-प्राणी में अधिक ऊपर नहीं उठ सका। इतना ही नहीं, एक ओर पूर्ण अहिंसा के बौद्धिक आदर्श की वात और दूसरी और मांसाहार की लालमा एवं रूढ़ परम्पराओं के प्रति अंध आस्था ने अपवाद का एक नया आयाम खड़ा किया और कहा गया कि 'वेदविहित हिंमा हिमा नहीं है।" श्रमण परम्पराएं इस दिगा में और आगे आयीं और उन्होंने अहिमा की व्यावहारिकता का विकास समय प्राणी-जगत् तक करने का प्रयाम किया और इसी आधार पर वैदिक हिंसा की खुल कर मालोचना की गई। कहा गया कि र्याद यूप के छेदन करने से और पशुओं की हत्या करने में और स्वन का कीचड़ मचाने से ही स्वगं मिलता हो तो फिर नर्क में कैसे जाया जावंगा। यदि हनन किया गया पशु स्वर्ग को जाता है तो फिर यजमान अपने मातापिता को बलि ही क्यों नहीं दे देता ?' अहिंसक चेतना का सर्वाधिक विकास हुआ है श्रमण परम्परा में । इसका मुख्य कारण यह था कि गृहस्थ जीवन में रहकर पूर्ण शिंसा के आदर्श को साकार कर पाना सम्भव नहीं था । जीवनयापन अर्थात् आहार, सुरक्षा आदि के लिए हिमा आवश्यक तो है ही, अतः उन सभी धर्म परम्परागों में जो मूलतः निवृतिपरक या संन्यासमार्गीय नहीं थी, अहिंसा को उतना अर्थविस्तार प्राप्त नहीं हो सका जितना श्रमणधारा या संन्यासमार्गीय परंपरा में सम्भव था। यद्यपि श्रमण परंपराओं के द्वारा हिमापरक यज्ञ-यागों को आलोचना और मानवीय विवेक एवं संवेदनशीलता के विकास का एक परिणाम यह हुआ कि वैदिक परम्परा में भी एक ओर वेदों के पशुहिंसापरक पदों का अर्थ अहिंसक रीति से किया जाने लगा (महाभारत के शान्तिपर्व में राजा वसु का आख्यान-अध्याय ३३७-३३८ -इसका प्रमाण है) तो दूसरी और धार्मिक जीवन के लिए कर्मकाण्ड को अनुपयुक्त मानकर औपनिषदिक धारा के रूप में ज्ञान-मार्ग का और भागवत धर्म के रूप में भक्ति-मार्ग का विकास हुआ। इसमें अहिंसा का अविस्तार सम्पूर्ण प्राणीजगत् अर्थात् म चीजों की हिंसा के निषेध तक हुआ है । वैदिक परम्परा में संन्यासी को कन्दमूल एवं फल का उपभोग करने की स्वतन्त्रता है. इस प्रकार वहां वानस्पतिक हिमा का विचार उपस्थित नहीं है। फिर भी यह तो सत्य है कि अहिंसक चेतना को सर्वाधिक विकसित करने का श्रेय श्रमण परम्पराओं को ही है। भारत में ई० पू० ६ठौं शताब्दी का जो भी इतिवृत्त हमें प्राप्त होता है उससे ऐसा लगता है कि उस युग में पूर्ण अहिंसा के आदर्श को साकार बनाने में श्रमण सम्प्रदायों में होड़ लगी १. "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति". २. अभिधान राजेन्द्रकोश, खण्ड ७, पृ० १२२९. ३. भारतीय दर्शन (दत्त एवं चटर्जी), पृ० ४३ पर उद्धृत.
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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