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________________ जैन, बौड मोर गोता न समाव दर्शन संथारा एवं चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान की अवस्थाएं ऐसी है जिनमें पूर्ण अहिंसा का बादर्श साकार हो जाता है। पूर्ण बहिसा सामाजिक सन्दर्भ में पुनः अहिंसा की सम्भावना पर हमें न केवल वैयक्तिक दृष्टि से विचार करना है अपितु सामाजिक दृष्टि से भी विचार करना है । चाहे यह सम्भव भी हो, व्यक्ति शरीर, सम्पत्ति, संघ और समाज से निरपेक्ष होकर पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध कर सकता है। फिर भी ऐसी निरपेक्षता किन्हीं विरल सापकों के लिए ही सम्भव होगी, सर्व सामान्य के लिए तो सम्भव नहीं कही जा सकती है। अतः मूल प्रश्न यह है कि क्या सामाजिक जीवन पूर्ण अहिंसा के बादर्श पर खड़ा किया जा सकता है ? क्या पूर्ण अहिंसक समाज की रचना सम्भव है ? इस प्रश्न का उत्तर देने के पूर्व में आपसे समाजरचना के स्वरूप पर कुछ बातें कहना चाहूंगा। एक तो यह कि अहिंसक चेतना अर्थात् संवेदनशीलता के अभाव में समाज की कल्पना ही सम्भव नहीं है। समाज जब भी खड़ा होता है आत्मीयता, प्रेम और सहयोग के आधार पर खड़ा होता है अर्थात् अहिंसा के भाषार पर खड़ा होता है। क्योंकि हिंसा का अर्थ है-घृणा, विद्वेष, आक्रामकता; और जहाँ भी ये वृत्तियाँ बलवती होंगी सामाजिकता की भावना ही समाप्त हो जावेगी, समाज ढह जावेगा। अतः समाज और अहिंसा सहगामी है। दूसरे शब्दों में यदि हम मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी मानते हैं तो हमें यह मानना होगा कि अहिंसा उसके लिए स्वाभाविक ही है। जब भी कोई समाज खड़ा होगा और टिकेगा तो वह अहिंसा की भित्ति पर ही खड़ा होगा और टिपेगा। किंतु एक दूसरा पहलू भी है, वह यह कि समाज के लिए भी अपने अस्तित्व और अपने सदस्यों के हितों के संरक्षण का प्रश्न मुख्य है और जहां अस्तित्व की सुरक्षा बोर हितों के संरक्षण का प्रश्न है, वहाँ हिंसा अपरिहार्य है। हितों में टकराव स्वाभाविक है, अनेक बार तो एक का हित दूसरे के अहित पर, एक का अस्तित्व दूसरे के दिनाश पर खड़ा होता है, ऐसी स्थिति में समाज-जीवन में भी हिंसा अपरिहार्य होगी। पुनः समाज का हित और सदस्य-व्यक्ति का हित भी परस्पर विरोध में हो सकता है। जब वैयक्तिक और सामाजिक हितों के संघर्ष की स्थिति हो तो बहजन हितार्य हिंसा अपरिहार्य भी हो सकती है। जब समाज या राष्ट्र का कोई सदस्य या वर्ग अथवा दूसरा राष्ट्र अपने हितों के लिये हिंसा पर अथवा अन्याय पर उतारू हो जाये तो निश्चय ही अहिंसा की दुहाई देने से काम न चलेगा। जब तक जैन आचार्यों द्वारा उद्घोषित 'मानव जाति एक है' की कल्पना साकार नहीं हो पाती, जब तक सम्पूर्ण मानव समाज ईमानदारी के साथ अहिंसा के पालन के लिए प्रतिबद्ध नहीं होता, तब तक अहिंसक समाज की बात करना कपोलकल्पना ही कहा जायेगा। जैनागम जिस पूर्ण अहिंसा के बादर्श को प्रस्तुत करते हैं उसमें भी जब संघ की या संघ के किसी सदस्य की सुरक्षा या न्याय का प्रश्न बाया तो हिंसा को स्वीकार करना पड़ा । गणाषि
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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