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________________ सामाजिक नैतिकता के केन्द्रीय तस्य : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह ५५ किया है कि हिंसा की अवधारणा का विकास भय के आधार पर हुआ है । वे लिखते हैं- 'असभ्य मनुष्य जीव के विभिन्न रूपों को भय की दृष्टि से देखते थे और भय की यह धारणा ही अहिंसा का मूल हैं।' लेकिन कोई भी प्रबुद्ध विचारक मकेन्ज़ी की इस धारणा से सहमत नहीं होगा । आचारांग में अहिंसा के सिद्धान्त को मनोवैज्ञानिक आधार पर स्थापित करने का प्रयास किया गया है । उसमें अहिंसा को आर्हत प्रवचन का सार और शुद्ध एवं शाश्वत धर्म बताया गया है । सर्वप्रथम हमें यह विचार करना है कि अहिंसा को ही धर्म क्यों माना जाय ? सूत्रकार इसका बड़ा मनोवैज्ञानिक उत्तर प्रस्तुत करता है; वह कहता है कि सभी प्राणियों में जिजीविषा प्रधान है, पुनः सभी को सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है ।" अहिंसा का अधिष्ठान यही मनोवैज्ञानिक सत्य है । अस्तित्व और मुग्व की चाह प्राणीय स्वभाव है, जैन विचारकों ने इमी मनोवैज्ञानिक तथ्य के आधार पर अहिंसा को स्थापित किया है । अहिंसा का आधार 'भय' मानना गलत है क्योंकि भय के सिद्धान्त को यदि अहिंसा का आधार बनाया जायेगा तो व्यक्ति केवल गबल की हिंसा से विरत होगा, निर्बल की हिमा में नहीं । जिसमें भय होगा उसी के प्रति अहिंसक बुद्धि बनेगी । जबकि जैनधर्म तो सभी प्राणियों के प्रति यहां तक कि वनस्पति, जल और पृथ्वीकायिक जीवों के प्रति भी अहिंसक होने की बात कहता है, अतः अहिमा को भय के आधार पर नहीं अपितु जिजीविषा और सुखाकांक्षा के मनोवैज्ञानिक मत्यों के आधार पर अधिष्ठित किया जा सकता है । पुन: जैनधर्म ने इन मनोवैज्ञानिक सत्यों के साथ ही अहिमा को तुल्यता बोध का बौद्धिक आधार भी दिया गया है । वहाँ कहा गया है कि जो अपनी पीड़ा को जान पाता है वही तुल्यता बांध के आधार पर दूसरों की पीड़ा को भी समझ सकता है। प्राणीय पीड़ा की तुल्यता के बोध के आधार पर होने वाला आत्मसंवेदन हो अहिमा की नींव है । वस्तुत: अहिंसा का मूलाधार जीवन के प्रति सम्मान, ममत्यभावना एवं अद्वैतभावना है । ममत्वभाव मे महानुभूति तथा अद्वैतभाव मे आत्मीयता उत्पन्न होती है और इन्हीं में अहिंसा का विकास होता है | अहिमा जीवन के प्रति भय से नहीं, जीवन के प्रति सम्मान में विकसित होती है। दावैकालिकसूत्र में कहा गया है कि सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता अतः निर्ग्रन्थ प्राणवच (हिमा) का निषेध करते हैं । वस्तुतः प्राणियों के जीवित रहने का नैतिक अधिकार ही अहिंसा के कर्तव्य को जन्म देना है। जीवन के अधिकार का सम्मान ही अहिंसा है। उत्तराध्ययनसूत्र में ममत्व के आधार पर अहिमा के मिद्धान्त की स्थापना करते हुए कहा गया १. अज्झत्य जाणइ से बहिया जाणई एयं तुल्लमन्नमि १।१।७ २. सव्वे पाणा पिलाउया सुहसाया दुःखपडिकला. १०२१३ ३. दशवेकालिक ६।११ ,
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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