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________________ ५४ बैन, बौद्ध और गोता का समाज दर्शन है, वैसे ही सब प्राणियों को अप्रिय, प्रतिकूल है, इस प्रकार जो सब प्राणियों में अपने समान ही सुख और दुःखको तुल्य भाव से अनुकूल और प्रतिकूल देखता है, किसी के भी प्रतिकूल आचरण नहीं करता, वही अहिंसक है। इस प्रकार का अहिंसक पुरुष पूर्ण ज्ञान में स्थित है, वह सब योगियों में परम उत्कृष्ट माना जाता है ।" महात्मा गांधी भी गीता को अहिमा का प्रतिपादक ग्रन्थ मानते हैं। उनका कथन है - ' गीता की मुख्य शिक्षा हिमा नहीं, अहिंसा है। हिमा बिना क्रोष, आमक्ति एवं घृणा के नहीं होती और गीता हमें मत्व, रज और तमस् गुणों के रूप में घृणा, क्रोष आदि अवस्थाओं से ऊपर उठने को कहती है । (फिर वह हिंसा की समर्थक कैसे हो मकती है ) । डा० राधाकृष्णन् भी गीता को अहिंसा का प्रतिपादक ग्रन्थ मानते हैं । वे लिखते हैं- 'कृष्ण अर्जुन को युद्ध करने का परामर्श देता है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह युद्ध की वैधता का समर्थन कर रहा है। युद्ध तो एक ऐसा अवसर आ पड़ा है; जिसका उपयोग गुरु उस भावना की ओर संकेत करने के लिए करता है, जिम भावना के साथ सब कार्य, जिनमें युद्ध भी सम्मिलित है, किये जाने चाहिए । यह हिमा या अहिंसा का प्रश्न नहीं है, अपितु अपने उन मित्रों के विरुद्ध हिंसा के प्रयोग का प्रश्न है, जो अब शत्रु बन गये हैं । युद्ध के प्रति उसकी हिचक आध्यात्मिक विकास या सत्वगुण की प्रधानता का परिणाम नहीं है, अपितु अज्ञान और वासना की उपज है । अर्जुन इम बात को स्वीकार करता है कि वह दुर्बलता और अज्ञान के वशीभूत हो गया हैं। गीता हमारे सम्मुख जो आदर्श उपस्थित करती है, वह अहिंसा का है, और यह बात सातवें अध्याय में मन, वचन और कर्म की पूर्ण दशा के और बारहवें अध्याय में भक्त की मनोदशा के वर्णन स्पष्ट हो जाती है। कृष्ण अर्जुन को आवेग या दुर्भावना के बिना, राग या द्वेष के बिना युद्ध करने को कहता है और यदि हम अपने मन को ऐसी स्थिति में ले जा सकें, तो हिंसा असम्भव हो जाती है । 3 से इस प्रकार स्पष्ट हूं गीता हिमा की समर्थक नहीं है । मात्र अन्याय के प्रतिकार के लिए अद्वेषबुद्धिपूर्वक विवशता में हिंसा करने का जो समर्थन गीता में दिखाई पड़ता है, उससे यह नहीं कहा जा सकता कि गीता हिंसा की समर्थक है । अपवाद के रूप में हिंसा का समर्थन नियम नहीं बन जाता। ऐसा समर्थन तो हमें जैन और बौद्ध आगमों में भी उपलब्ध हो जाता है । अहिंसा का आधार - अहिंसा की भावना के मूलाधार के सम्बन्ध में विचारकों में कुछ भ्रान्त धारणाओं को प्रश्रय मिला है, अतः उस पर सम्यक्रूपेण विचार कर लेना आवश्यक है । मेकेन्जी ने अपने ग्रन्थ हिन्दूएथिक्स' में इस भ्रान्त विचारणा को प्रस्तुत १. गीता, ६।३२ ३. भगवद्गीता ( रा ० ), पु०७४-७५ २. दि भगवद्गीता एण्ड चेंजिंग वर्ल्ड, १० १२२ ४. हिन्दू एथिक्स, मेकेन्जी
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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