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________________ ३० जन, बोड और पीता का समाधान प्रधान तत्त्व परोपकार ही है, यद्यपि उमे अध्यात्म या परमार्थ का विरोधी नहीं होना चाहिए। गीता में भी जिन-जिन स्थानों पर लोकहित का निर्देश है, वहां निष्कामता की शतं है हो। निष्काम और आध्यात्मिक या नैतिक तत्वों के अविरोध में रहा हमा परार्थ हो गीता को मान्य है । गीता में भी स्वार्य और परार्थ की समस्या का सच्चा हल आत्मवत सर्वभूनंपु की भावना में खोजा गया है। जब सभी में आत्मदृष्टि उत्पन्न हो जाती है तो न म्बाथ रहता है, न परार्थ; क्योंकि जहां 'स्व' हो वहाँ स्वार्थ रहता है । जहाँ पर हो, वहाँ पराथं रहता है। लेकिन मर्वात्मभाव में 'स्व' और 'पर' नहीं होते हैं, अतः उस दशा में स्वार्थ और परार्थ भी नहीं होता है। वहां होता है केवल परमार्थ । भौतिक स्वार्थों में ऊपर परार्थ का स्थान मभी को मान्य है । स्वार्थ और पगर्थ के सम्बन्ध में भारतीय आचार-दर्शनों के दृष्टिकोण को भर्तृहरि के इस कथन से भलीभांति समझा जा मकता है-प्रथम, जो स्वार्थ का परित्याग कर परार्थ के लिए कार्य करते हैं वे महान है; दूमरे, जो स्वार्थ के अविरोध में परार्ण करते हैं अर्थात् अपने हितों का हनन नही करते हुए लोकहित करते है वे सामान्य जन हैं; तीसरे, जो स्वहित के लिए परहित का हनन करते है वं अधम (राक्षम) कह जाते हैं। लेकिन चौथे, जो निरर्थक ही दूमगे का अहित करते हैं उन्हें क्या कहा जाए, वे तो अधमाधम हैं। फिर भी हमें यह ध्यान रखना होगा कि भारतीय चिन्तन में परार्थ या लोकहित अन्तिम तत्व नहीं है । अन्तिम तत्व है परमार्थ या आत्मार्थ । पाश्चात्त्य आचार-दर्शन में स्वार्थ और परार्य की समस्या का अन्तिम हल सामान्य शुभ में खोजा गया, जबकि विशेष रूप से जैन-दर्शन में और सामान्य रूप में समग्र भारतीय चिन्तन में इस समस्या का हल परमार्ण या आत्मार्ण में खोजा गया। नैतिक चेतना के विकास के साथ लोकमंगल की साधना भारतीय चिन्तन का मूलभूत साध्य रहा है। ऐसी लोकमंगल की सर्वोच्च भावना का प्रतिबिम्ब हमें आचार्य शान्तिदेव के शिक्षासमुच्चय नामक ग्रन्थ में मिलता है। हिन्दी में अनूदित उनकी निम्न पंक्तियां मननीय है: इस दुःखमय नरलोक में, जितने दलित, बन्धनसित पोडित विपत्ति विलीन है; जितने बहुपन्धी विवेक विहीन है। जो कठिन भय से और दारुण शोक से अतिदीन है, वे मुक्त हो निमबन्ध से, स्वच्छन्द हो सब इन से, छूटे दलन के फन्द से, १. तुलना कीजिए-अंगुत्तरनिकाय भाग १, पृ० १०१७. नीतिशतक (मर्तृहरि), ७४
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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