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________________ बनाव २९ एक ओर हीनयान ने एकांगी साधना और व्यक्तिनिष्ठ बाचार-परम्परा का विकास किया और साधना को अधिकांश रूपेण आन्तरिक एवं वैयक्तिक बना दिया, वहाँ दूसरी और महायान ने उसी की प्रतिक्रिया में साधना के वैयक्तिक पक्ष की उपेक्षा कर उसे सामाजिक और बहिर्मुखी बना दिया। इस तरह लोक-सेवा और लोकानुकम्पा को अधिक महत्त्व दिया । यहाँ हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि हीनयान और महायान ने जिस सीमा तक अपने में इस ऐकान्तिक को प्रश्रय दिया है. वे उसी सीमा तक बुद्ध की मध्यम मार्गीय देशना से पीछे भी हटे हैं । स्वाहित और लोकहित के सम्बन्ध में गीता का मन्तव्य - गीता मे गदैव ही स्वहित के ऊपर लोकहित की प्रतिष्ठा हुई है। गीताकार की दृष्टि में जो अपने लिए ही पकाता है और खाता है वह पाप ही खाता है ।" स्वहित के लिए जीने वाला व्यक्ति गीता की दृष्टि में अनामिक और नीच है। गीताकार के अनुसार जो व्यक्ति प्राप्त भोगों को देनेवाले देवों को दिए बिना, उनका ऋण चुकाये बिना खाता है वह चोर हैं। गामाजिक दायित्वों का निर्वाह न करना गीता की दृष्टि में भारी अपराध है । गीता के अनुसार लोकहित करना मनुष्य का कर्तव्य है । सर्व प्राणियों के हितसम्पादन में लगा हुआ पुरुष ही परमात्मा को प्राप्त करता है। वह ब्रह्म-निर्वाण का अधिकारी होता है ।" जिसे कर्म करने से कोई प्रयोजन नहीं रह गया है अर्थात् जो जीवनमुक्त हो गया है, जिसे संसार के प्राणियों से कोई मतलब नहीं, उसे भी लोक-हितार्थ कर्म फरते रहना चाहिए । श्रीकृष्ण अर्जुन से यही कहते हैं कि लोकसंग्रह (लोकहित ) के लिए तुझे कर्तव्य करना उचित है ।" गीता में भगवान् के अवतार धारण करने का उद्देश्य साधुजनों की रक्षा, दुष्टों का नाश और धर्म की संस्थापना है ।" इन प्रकार जैन, बौद्ध और गीता इन तीनों परम्पराओं में तीर्थंकर, बुद्ध और ईद का कार्य लोकहित या लोकमंगल हो माना गया है । यद्यपि जैन व बौद्ध विचारणाओं में तीर्थंकर एवं बुद्ध का कार्य मात्र धर्म-संस्थापना और लोक-कल्याण है । वं गीता के कृष्ण के समान धर्म-संस्थापना के साथ-साथ न तो माधु जनों की रक्षा का दावा करते हैं और न दुष्टों के प्रहाण की बात कहते हैं । दृष्टों के प्रहाण की बात उनकी विशुद्ध अहिसक प्राणी मे मेल नहीं खानी है । यद्यपि अगुत्तरनिकाय में बुद्ध ने शिक्षापदों की प्रज्ञप्ति के जो कारण दिए हैं वे गीता के समान ही है । तथापि लोक-मंगल के आदर्श को लेकर तीनों विचारणाओं में महत्वपूर्ण साम्य है । इन आचार-दर्शनों का केन्द्रीय या २. वही, ३।१२ ४. वही, ३।१८ १. गीता ३।१३ ३. वहो, ५।२५, १२ ।४ ५. वही, ३।२० ६. वही, ४८ ७. तुलना कीजिए, गीता ४८ तथा अंगुत्तरनिकाय, २११६
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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