SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन, बौड और गीता का समान दर्शन यावन् भ्रियेत जठरं, तावत् स्वत्वं देहिनाम् । अधिको योऽभिमन्येत, म स्तेनो दण्डमहति ।।' अर्थात् अपनी दैहिक आवश्यकता में अधिक सम्पदा पर अपना स्वत्व मानना मामाजिक दृष्टि से चोरी है, अनधिकृत चेप्टा है। आज का ममाजवाद एवं साम्यवाद भी इसी आदर्श पर बड़ा है, योग्यता के अनुसार कार्य और आवश्यकता के अनुमार वेतन' को उमकी धारणा यहाँ पूरी तरह उपस्थित है। भारतीय चिन्तन में पुण्य और पाप का, जो वर्गीकरण है, उममें भी सामाजिक दृष्टि ही प्रमुख है । पाप के रूप में जिन दुर्गुणों का और पुण्य के रूप में जिन मद्गुणों का उत्सव है उनका सम्बन्ध वैयक्तिक जीवन की अपेक्षा सामाजिक जीवन से अधिक है। पुण्य और पाप की एक मात्र कमोटी हैकिमा कर्म का लोक-मंगल में उपयोगी या अनुपयोगी होना । कहा भी गया है: ___ 'परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीडनम्' जो लोक के लिए हितकर है कल्याणकर है, वह पुण्य है और इसके विपरीत जो भी दूमरों के लिए पीड़ा-जनक है, अमंगलकर है वह पाप है। इस प्रकार भारतीय चिन्तन में पुण्य-पाप की व्याख्या भी मामाजिक दृष्टि पर ही आधारित हैं । जैन एवं बौद्धधर्म में सामाजिक चेतना यदि हम निवर्तक धाग के समर्थक जैनधर्म एवं वौद्धधर्म की ओर दृष्टिपात करते है तो प्रथम दष्टि में ऐमा लगता है कि इनमें समाज की दृष्टि की उपेक्षा की गई है। सामान्यतया यह माना जाता है कि निवृत्ति-प्रधान दर्शन व्यक्ति-परक आर प्रवृत्ति-प्रधान दर्शन ममाजपरक होते हैं। किन्तु मान लेना कि भारतीय चिन्तन की निवर्तक धारा समर्थक जैन, बाद आदि दर्शन असामाजिक है या इन दर्शनों में नामाजिक संदर्भ का अभाव है. नितान्त भ्रम होगा। इनमे भी सामाजिक भावना से पराङ्मुखता नहीं दिखाई देती है। ये दान इतना तो अवश्य मानते हैं कि चाहे वैयक्तिक साधना की दृष्टि में एकांकी जीवन लाभप्रद हो सकता है किन्तु उस माधना से प्राप्त मिद्धि का उपभोग गामाजिक कल्याण की दिगा में ही होना चाहिए । महावीर और बुद्ध का जीवन स्वयं इस बात का माक्षी है कि वे ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् जीवन-पर्यन्त लोक-मंगल के लिए कार्य करते रहे। यद्यपि इन निवृत्तिप्रधान दर्शनों में जो सामाजिक सन्दर्भ उपस्थित है, वे थोड़े भिन्न प्रकार के अवश्य हैं । इनमें मूलतः सामाजिक सम्बन्धों की गुद्धि का प्रयास परिलक्षित होता है। सामाजिक सन्दर्भ की दृष्टि से इनमें समाज-रचना एवं सामाजिक दायित्वों की निर्वहण को अपेक्षा समाज-जीवन को दूषित बनाने वाले तत्त्वों के निरमन पर बल दिया गया है । जैन-दर्शन के पंच महाव्रत, बौद्ध दर्शन के पंचशील और योग दर्शन के पंचयमा का १. श्रीमद्भागवत ७।१४८
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy