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________________ भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना विद्धि मात्तिकम् ।' संक्तिक विभिन्नताओं में भी एकात्मता की अनुभूति ही ज्ञान की सात्विकता और हमारी ममान-निष्ठा का एक मात्र आधार है। सामाजिक दृष्टि से गीता 'मर्वभूत-हिते रताः' का मामाजिक आदर्श भी प्रस्तुत करती है। अनासक्त भाव से यक्त होकर लोक-कल्याण के लिए कार्य करते रहना ही गीता के समाज-दर्शन का मूल मन्तव्य है। श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं 'ने प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहितेरताः'' मात्र इतना ही नहीं, गीता मे मामाजिक दायित्वों के निर्वहन पर भी पूरा-पूग बल दिया गया है जो अपने मामाजिक दायित्वों को पूर्ण किये बिना भोग करता है वह गीताकार को दृष्टि में चोर (स्सेन एव मः ३११२) । साथ हो जो मात्र अपने लिए पकाता है वह पाप का ही अर्जन करता है। (भुंजते ते त्वचं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ३१) । गीता हमें ममाज में रहकर ही जीवन जीने की शिक्षा देती है इसलिए उमने संन्याम की नवीन परिभाषा भी प्रस्तुत की है । वह कहती है कि 'काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः'' काम्य अर्थात् स्वार्थ युक्त कर्मों का त्याग हो संन्याम है, केवल निरग्नि और निष्क्रिय हो जाना गन्याम नहीं है। मच्च मंन्यामी का लक्षण है समाज में रहकर लोककल्याण के लिए अनामक्त भाव से कर्म करता रहे। अनाश्रितः कर्मफलं कार्य करोति यः । म मंन्याम च योगी च न निरग्नि नं चाक्रियः ॥३ गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि लोक-शिक्षा को चाहते हुए कर्म करता रहे (कुर्यात् विद्वान् तथा अमक्तः चिकीर्पः लोकसंग्रहम्)। गीता में गुणाश्रित कर्म के आधार पर वर्ण-व्यवस्था का जो आदर्श प्रस्तुत किया था वह भी मामाजिक दृष्टि में कर्नव्यों एवं दायित्वों के विभाजन का एक महत्त्वपूर्ण कार्य था, यद्यपि भारतीय समाज का यह दुर्भाग्य था कि गुण अर्थात् वैयक्तिक योग्यता के आधार पर कर्म एवं वर्ण का यह विभाजन किन्हीं निहित स्वार्थों के कारण जन्मना बना दिया गया । वस्तुतः वेदों में एवं स्वय गीता में भी जो विराट् पुरुष के विभिन्न अंगों में उत्पत्ति के रूप में वर्णों की अवधारणा है वह अन्य कुछ नहीं अपितु समाज-युरूप के विभिन्न अंगों को अवधारणा है और किमी भीमा तक ममाज के आंगिकता मिद्धांत का ही प्रस्तुतीकरण है। मामाजिक जीवन में विषमता एवं संघर्ष का एक महत्त्वपूर्ण कारण सम्पत्ति का अधिकार है। श्रीमद्भागवत भी ईशावास्योपनिषद् के समान ही सम्पत्ति पर व्यक्ति के अधिकार को अस्वीकार करती है । उसमें कहा गया है:१. गीता १२।४ २. वही, १८०२ ३. वही, ६१ ४. वही, ३१२५
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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