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________________ भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना समाज-निष्ठा के बीज का वपन करते । सहयोगपूर्ण जीवन-शैली उनका मूल मंतत्र्य था । प्रत्येक अवसर पर शांति पाठ के माध्यम से वे जन-जन में सामाजिक चेतना के विकास का प्रयास करते थे । वे अपने शांति पाठ में कहते थे: ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु मह वीर्य करवावहै, तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।" हम सब साथ-साथ रक्षित हों. साथ-साथ पोषित हों, साथ-साथ सामर्थ्य को प्राप्त हो, हमारा अध्ययन तेजस्वी हो, हम आपस में विद्वेष न करें। वैदिक समाज दर्शन का आदर्श था - 'शत हस्तः ममाहर, महस्रहस्तः सोकर' संकड़ों हाथों से इकट्ठा करो और हजार हाथों में बांटी | किन्तु यह बांटने की बात दया या कृपा नहीं है अपितु सामाजिक दायित्व का बोध है । क्योंकि भारतीय चिंतन में दान के लिए संविभाग शब्द का प्रयोग होता रहा है, इसमें मम वितरण या सामाजिक दायित्व का बोध ही प्रमुख है, कृपा, दया, करुणा ये सब गोण हैं । आचार्य शंकर ने दान की व्याख्या की है 'दानं संविभागं' | जैन दर्शन में तो अतिथि संविभाग के रूप में एक स्वतन्त्र व्रत की व्यवस्था की गई है । संविभाग शब्द करुणा का प्रतीक न होकर सामाजिक अधिकार का प्रतीक है । वैदिक ऋषियों का निक था कि जो अकेला खाता है वह पापी है ( केवलादो भवति केवलादी) जैन दार्शनिक भी कहने थे 'असंविभागी न हु तम्म मोक्खो' जो मम - विभागी नहा है। उसकी मुक्ति नहीं होगी । इस प्रकार हम वैदिक युग में सहयोग एवं सहजीवन का संकल्प उपस्थित पाने हैं । किन्तु उसके लिए दार्शनिक आधार का प्रस्तुतिकरण ओपनिपदिक चिन्तन में ही हुआ है । औपनिषदिक ऋषि 'एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा' 'सर्व खल्विदं ब्रह्म' तथा 'ईशावास्यमिदं सर्वम्' के रूप में एकत्व की अनुभूति करने लगा । अपनिपदिकचिन्तन में वैयक्तिकता से ऊपर उठकर सामाजिक एकता के लिए अभेदनिष्ठा का सर्वोत्कृष्ठ तात्विक आधार प्रस्तुत किया गया। इस प्रकार जहां वेदों की समाज-निष्ठा बर्हिमुखी थी, वही उपनिषदों में आकर अन्तर्मवी हो गयी । भारतीय दर्शन में यह अभेद - निष्ठा ही मामाजिक एकत्व की चेतना एवं मामाजिक ममता का आधार बनी है । ईशावास्योपनिषद् का ऋषि कहता था : यस्तु मर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति । सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥ २ ३ जो भी प्राणियों को अपने में और अपने को सभी प्राणियों में देखता है वह अपनी इम एकात्मता की अनुभूति के कारण किसी से घृणा नहीं करता है। सामाजिक जीवन के विकास का आधार एकात्मता की अनुभूति है और जब एकात्मता की दृष्टि का विकास हो १. तैत्तिरीय आरण्यक ८ २ २. ईश ६
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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