SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन, बौड और गोला का समान दर्शन वैयक्तिकता और मामाजिकता दोनों ही मानवीय 'स्व' के अनिवार्य अंग हैं। पाश्चात्य विचारक बंडले का कयन है कि 'मनुष्य नहीं है, यदि वह सामाजिक नहीं, किन्तु यदि वह मात्र मामाजिक ही है, तो वह पा से अधिक नहीं है। मनुष्य की मनुष्यता वैयक्तिकना और मामाजिकता दोनों का अतिक्रमण करने में है । वस्तुतः मनुष्य एक ही गाथ मामाजिक और वैयक्तिक दोनों ही है। क्योंकि मानव व्यक्तित्व में गगद्वेष के तत्त्व अनिवार्य रूप में उपस्थित हैं । गग का तन्व उममें सामाजिकता का विकास करता है, तो ढेप का तन्त्र उममें वैयक्तिकता या म्व-हितवादी दृष्टि का विकास करता है। जब ग़ग का मीमाक्षेत्र मंकुचित होता है और ट्रेप का अधिक विस्तरित होता है, तो व्यक्ति को स्वार्थी कहा जाता है, उसमें वैयक्तिकता प्रमुख होती है। किन्तु जब गग का मीमाक्षेत्र विस्तरित होता है और हेप का क्षेत्र कम होता है, तब व्यक्ति परोपकारी या मामाजिक कहा जाता है। किन्तु जब वह वीतराग और वीतद्वेप होता है, तब वह अतिगामाजिक होता है । किन्तु अपने और पराये भाव का यह अतिक्रमण असामाजिक नहीं है। वीतरागदा की माधना में अनिवार्य रूप में 'म्व' की मंचित सीमा को तोड़ना होता है। अतः गगी साधना अनिवार्य रूप में अमामाजिक तो नहीं हो गकती है। माथ ही मनुष्य जब तक मनुष्य है, दह वीतराग नहीं हुआ है, तो स्वभावतः ही एक सामाजिक प्राणी है। अतः कोई भी धर्म मामाजिक चेतना में विमुख होकर जीवित नहीं रह सकता । वेदों एवं उपनिषदों में सामाजिक चेतना भारतीय चिन्तन की प्रवर्तक वैदिक धारा में मामाजिकता का तत्व उसके प्रारम्भिक काल में ही उपस्थित है । वेदों में मामाजिक जीवन की संकल्पना के व्यापक मन्दर्भ हैं । वैदिक ऋपि मफल एवं महयोगपूर्ण मामाजिक जीवन के लिए अभ्यर्थना करते हुए कहता है कि 'मंगच्छध्वं संवदध्वं मं वो मनांमि जानताम'तुम मिलकर चलो, मिलकर बोलो, तुम्हारे मन माथ-माथ विचार करें; अर्थात् तुम्हारे जीवन व्यवहार में महयोग, तुम्हारी वाणी में ममस्वरता और तुम्हारे विचारों में समानता हो ।' आगे पुनः वह कहता है: समानो मन्त्रः ममितिः ममानी, समानं मनः महचित्तमेपाम् । ममानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः । समानमस्तु वो मनो यथा ३: मुमहासति । अर्थात् आप सबके निर्णय समान हों, आप सबकी सभा भी सबके लिए समान हो, अर्थात मबके प्रति समान व्यवहार करे । आपका मन भी समान हो और आपकी चित्त:वृति भी समान हो, आपके संकल्प एक हों, आपके हृदय एक हों, आपका मन भी एकरूप हो ताकि आप मिलजुल कर अच्छी तरह से कार्य कर सकें । सम्भवतः सामाजिक जीवन एवं समाज-निष्ठा के परिप्रेक्ष्य में वैदिक युग के भारतीय चिन्तक के ये सबसे महत्त्वपूर्ण उद्गार हैं । वैदिक ऋषियों का 'कृण्वंतो विश्वमार्यम्' के रूप में एक सुसभ्य एवं सुसंस्कृत शनव-समाज की रचना का मिशन तभी सफल हो सकता था जबकि वे जन-जन में १. ऋग्वेद १०।१९१।२ २. वही, १०।१९२१३-४
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy