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________________ सम्यग्ज्ञान तीन स्तर माने जा सकते हैं । त्रिशिका में लोकोत्तर ज्ञान का निर्देश है ।' पाश्चात्य दार्शनिक स्पोनोजा ने भी ज्ञान के तीन स्तर माने हैं ।२ १. इन्द्रियजन्य ज्ञान, २. तार्किक ज्ञान और ३. अन्तर्बोधात्मक ज्ञान । यही नहीं, स्पीनोजा ने भी इनमें इन्द्रिय-ज्ञान की अपेक्षा ताकिक ज्ञान को और तार्किक ज्ञान की अपेक्षा अन्तर्बोधात्मक ज्ञान को श्रेष्ठ और अधिक प्रामाणिक माना है । उनकी दृष्टि में इन्द्रियजन्यज्ञान अपर्याप्त एवं अप्रामाणिक है, जबकि तार्किक एवं अन्तर्बोधात्मक ज्ञान प्रामाणिक है । इसमे भी पहले की अपेक्षा दूसरा अधिक पूर्ण है। ज्ञान का प्रथम स्तर इन्द्रियजन्य ज्ञान है। यह पदार्थों को या इन्द्रियों के विषयों को जानता है । ज्ञान के इस स्तर पर न तो 'स्व' या आत्मा का साक्षात्कार सम्भव है और न नैतिक जीवन ही । आत्मा या स्व का ज्ञान इस स्तर पर इसलिए असम्भव है कि एक तो आत्मा अमूर्त एवं अतीन्द्रिय है । दूसरे, इन्द्रियाँ बहिर्दृष्टा हैं, वे आन्तरिक 'स्व' को नहीं जान सकतीं। तीसरे, इन्द्रियों की ज्ञान-शक्ति 'स्व' पर आश्रित है, वे 'स्व' के द्वारा जानती है, अतः 'स्व' को नहीं जान सकती। जैसे आँख स्वयं को नही देख सकती, उसी प्रकार जानने वाली इन्द्रियाँ जिसके द्वारा जानती है उमे नहीं जान सकतीं। ज्ञान का यह स्तर नैतिक जीवन की दृष्टि से इमलिए महत्त्वपूर्ण नहीं है कि इस स्तर पर आत्मा पूरी तरह पराश्रित होती है। वह जो कुछ करता है, वह किन्हीं बाह्यतन्वों पर आधारित होकर करता है; अतः ज्ञान के इस स्तर मे आत्मा परतन्त्र है । जैन-विचारकों ने आत्मा की दृष्टि से इसे परोक्षज्ञान ही माना है, क्योंकि इसमें इन्द्रियादि निमित्त की अपेक्षा है। बौद्धिक ज्ञान-ज्ञान का दूसरा स्तर वौद्धिक ज्ञान या आगम ज्ञान का है। ज्ञान का बौद्धिक स्तर भी आत्म-साक्षात्कार या स्व-बोध की अवस्था तो नही है, केवल परोक्ष रूप में इस स्तर पर आत्मा यह जान पाता है कि वह क्या नही है । यद्यपि इस स्तर पर ज्ञान के विपय आन्तरिक होते हैं, तथापि इस स्तर पर विचारक और विचार का द्वैत रहता है । ज्ञायक आत्मा आत्मकेन्द्रित न होकर पर-केन्द्रित होता है। यद्यपि यह पर ( अन्य ) बाह्य वस्तु नहीं, स्वयं उसके ही विचार होते हैं । लेकिन जब तक पर-केन्द्रितता है, तब तक सच्ची अप्रमत्तता का उदय नहीं होता और जब तक अप्रमत्तता नहीं आती, आत्मसाक्षात्कार या परमार्थ का बोध नही होता है। जब तक विचार है, विचारक विचार में स्थित होता है और 'स्व' में स्थित नहीं होता और 'स्व' में १. त्रिशिका २०. उद्धृत महायान पृ० ७२ २. स्पीनोजा और उसका दर्शन, पृ० ८६-८७
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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