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________________ ७२ जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग सामान्य साधकों के लिए जैनाचार्यों ने ज्ञान की सम्यक्ता और असम्यक्ता का जो आधार प्रस्तुत किया, वह यह है कि तीर्थंकरों के उपदेशरूप गणधर प्रणीत जैनागम यथार्थजान है और शेष मिथ्याज्ञान है ।' यहाँ ज्ञान के सम्यक् या मिथ्या होने की कसौटी आप्तवचन है । जैनदृष्टि में आप्त वह है जो रागद्वेष से रहित वीतराग या अर्हत् है । नन्दीसूत्र में इमी आधार पर सम्यक् श्रुत और मिथ्या श्रुत का विवेचन हुआ है । लेकिन जैनागम ही सम्यग्ज्ञान है और शेप मिथ्याज्ञान है, यह कमौटी जैनाचार्यों ने मान्य नहीं रखी। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि आगम या ग्रन्थ जो शब्दों के संयोग से निर्मित हुए हैं, वे अपने आपमें न तो सम्यक हैं और न मिथ्या, उनका सम्यक् या मिथ्या होना तो अध्येता के दृष्टिकोण पर निर्भर है। एक यथार्थ दृष्टिकोण वाले (सम्यक दृष्टि) के लिए मिथ्या श्रुत (जैनतर आगम ग्रन्थ) भी सम्यकथुत है जबकि एक मिथ्यादृष्टि के लिए सम्यक् श्रुत भी मिथ्याश्रुत है । इस प्रकार अध्येता के दृष्टिकोण की विशुद्धता को भी ज्ञान के सम्यक् अथवा मिथ्या होने का आधार माना गया है । जैनाचार्यों ने यह धारणा प्रस्तुत की कि यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण शुद्ध है, सत्यान्वेपी है तो उसको जो भी ज्ञान प्राप्त होगा; वह भो सम्यक् होगा। इसके विपरीत जिमका दृष्टिकोण दुराग्रह दुरभिनिवेश से युक्त है, जिसमें यथार्थ लक्ष्योन्मुग्वता और आध्यात्मिक जिज्ञासा का अभाव है, उसका ज्ञान मिथ्याज्ञान है। शान के स्तर-'स्व' के यथार्थ स्वरूप को जानना ज्ञान का कार्य है, लेकिन कौनसा ज्ञान स्व या आत्मा को जान सकता है, यह प्रश्न अधिक महत्त्वपूर्ण है। भारतीय और पाश्चात्य चिन्तन में इस पर गहराई मे विचार किया गया है। गीता में एक और बुद्धि ज्ञान और असम्मोह के नाम से ज्ञान की तीन कक्षाओं का विवेचन उपलब्ध है, तो दूसरी ओर सात्विक, राजस और तामम इस प्रकार से ज्ञान के तीन स्तरों का भी निर्देश है। जैन-परम्परा मे मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्यय और केवल इस प्रकार से ज्ञान के पांच स्तरों का विवेचन उपलब्ध है। दूमरो ओर अपेक्षाभेद से लौकिक प्रत्यक्ष (इन्द्रियप्रत्यक्ष) परोक्ष (बौद्धिकज्ञान और आगम) और अलौकिक प्रत्यक्ष (आत्म-प्रत्यक्ष) ऐसे तीन स्तर भी माने जा सकते है । आचार्य हरिभद्र ने जैन-दृष्टि और गीता का समन्वय करते हुए इन्द्रियजन्य ज्ञान को बुद्धि, आगमज्ञान को ज्ञान और सदनुष्ठान (अप्रमत्तता) को असम्मोह कहा है। इतना ही नहीं, आचार्य ने उनमें बुद्धि (इन्द्रियज्ञान) एवं बौद्धिकज्ञान की अपेक्षा ज्ञान (आगम) और ज्ञान की अपेक्षा असम्मोह (अप्रमत्तता) की कक्षा ऊंची मानी है । बौद्ध-दर्शन मे भी इन्द्रियज्ञान, बौद्धिक ज्ञान और लोकोत्तर ज्ञान ऐसे १. अभिधान-राजेन्द्र खण्ड ७, १०५१५ २. वही, पृ० ५१४ ३. गीता, १०।४ ४. वही, १८।१९ ५. तत्त्वार्थसूत्र, १९ ६. योगदृष्टिसमुच्चय ११९
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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