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________________ जैन, बौड और गीता का सामना मा २. आकांक्षा-स्वधर्म को छोड़कर पर-धर्म की इच्छा करना या आकांक्षा करना। नैतिक एवं धार्मिक आचरण के फल की कामना करना। नैतिक कर्मों की फलासक्ति भी साधना-मार्ग में बाधक तत्त्व मानी गयी है। ३. विचिकित्सा-नैतिक अथवा धार्मिक आचरण के फल के प्रति संशय करना अर्थात् मदाचरण का प्रतिफल मिलेगा या नही ऐमा मंशय करना। जैन-विचारणा में नैतिक कर्मों की फलाकाक्षा एवं फल-मंशय दोनों को ही अनुचित माना गया है । कुछ जैनाचार्यों के अनुसार इसका अर्थ घृणा भी है। रोगी एवं ग्लान व्यक्तियों के प्रति घृणा रखना । घृणाभाव व्यक्ति को मेवापथ से विमुख बनाता है। ४. मिथ्या दृष्टियों को प्रशंसा-जिन लोगों का दृष्टिकोण सम्यक् नही है ऐसे अयथार्थ दृष्टिकोणवाले व्यक्तियों अथवा मंगठनों की प्रशंसा करना । ५. मिया वष्टियों का अति परिचय-साधनात्मक अथवा नैतिक जीवन के प्रति जिनका दृष्टिकोण अयथार्थ है ऐम व्यक्तियों मे घनिष्ठ सम्बन्ध रखना। मंगति का असर व्यक्ति के जीवन पर काफी अधिक होता है। चरित्र के निर्माण एवं पतन दोनों पर ही संगति का प्रभाव पड़ता है, अतः मदाचारी पका का अनैतिक आचरण करने वाले लोगों से अति परिचय या घनिष्ठ सम्बन्ध रखना उचित नहीं माना गया है । कविवर वनारमीदाग जी ने नाटक समयमार में गम्यक्त्व के अतिचारों को एक भिन्न सूची प्रस्तुत की है। उनके अनुमार मम्यक् दशन के निम्न पाँच अतिचार है :-- १. लोकभय, २. सामारिक मुग्वों के प्रति आमक्ति, ३. भावी जीवन मे सामारिक सुखों के प्राप्त करने की इच्छा, ४. मिथ्यागास्त्रों की प्रशमा एव ५. मिथ्या-मतियों की सेवा ।। ___ अगाढ़ दोप वह दोप है जिसमे अस्थिरता रहती है । जिम प्रकार हिलत हुए दर्पण मे यथार्थ रूप तो दिखता है. लेकिन वह अस्थिर होता है। इसी प्रकार अस्थिर चित्त में सत्य प्रकट तो होता है, लेकिन अस्थिर रूप मे । जैन-विचारणा के अनुसार उपर्युक्त दोषों की सम्भावना क्षायोपशिमक सम्यक्त्व मे होती है, उपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व में नही होती, क्योंकि उपशम सम्यक्त्व को समयावधि ही इतनी क्षणिक होती है कि दोष होने का समय नही रहता और क्षायिक सम्यक्त्व पूर्ण शुद्ध होता है, अतः वहाँ भी दोषों को मम्भावना नही रहती । सम्यग्दर्शन के आठ वर्शनाचार-उत्तराध्ययनसूत्र मे सम्यग्दर्शन की साधना के आठ अंगों का वर्णन है । दर्शन-विशुद्धि एवं उसके मंवर्द्धन और संरक्षण के लिए इनका पालन आवश्यक है । आठ अग इस प्रकार है : १. देखिये-गोम्मटसार-जीवकाण्ड गाथा २९ की अंग्रेजी टीका जे०एल० जैनी, पृष्ठ २२ २. नाटकसमयसार, १३३३८
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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