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________________ सम्यग्दर्शन ५९ जिसमें सत्याभीप्सा होगी वही सत्य को पा सकेगा । सत्याभीप्सा से ही अज्ञान से ज्ञान की ओर प्रगति होती है। यही कारण है कि उत्तराध्ययनसूत्र मे संवंग का प्रतिफल बताते हुए महावीर कहते हैं कि संवेग से मिध्यात्व (अयथार्थता) की विशुद्धि होकर यथार्थ दर्शन की उपलब्धि ( आराधना ) होती ह । ३. निर्वेद - निर्वेद शब्द का अर्थ है उदासीनता, वैराग्य, अनासक्ति । सामारिक प्रवृत्तियों के प्रति उदासीन भाव रखना, क्योंकि इसके अभाव मे साधना के मार्ग पर चलना सम्भव नही होता । वस्तुतः निर्वेद निष्काम भावना या अनासक्त दृष्टि के विकास का आवश्यक अंग है । ४. अनुकम्पा – इस शब्द का शाब्दिक निर्वचन इस प्रकार हे अनु + कम्प । अनु का अर्थ है तदनुसार, कम्प का अर्थ है कम्पित होना अर्थात् किसी के अनुसार कम्पित होना । दूसरे शब्दो में दूसरे व्यक्ति के दुःख में पीडित होने पर तदनुकूल अनुभूति उत्पन्न होना ही अनुकम्पा है। वस्तुतः दूसरे के सुख-दुख को अपना सुख-दुख समझना ही अनुकम्पा है । परोपकार के नैतिक सिद्धान्त का आधार ही अनुकम्पा ह । इसे सहानुभूति भी कहा जा सकता है । ५. आस्तिक्य - आस्तिक्य शब्द आस्तिकता का द्योतक है। इसके मूल में अस्ति शब्द है जो मत्ता का वाचक है । आस्तिक किसे कहा जाये, इस प्रश्न का उत्तर अनेक रूपो मे दिया गया है। कुछ ने कहा जो ईश्वर के अस्तित्व या मत्ता में विश्वास करता है वह आस्तिक है, दूसरो ने कहा जो वेदों में आस्था रखता है वह आस्तिक है । लेकिन जैन विचारणा मे आस्तिक और नास्तिक के विभेद का आधार भिन्न है । जैन दर्शन के अनुसार जो पुण्य-पाप, पुनर्जन्म कर्म सिद्धान्त और आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है, वह आस्तिक है । - सम्यक्त्व के दूषण (अतिचार) — जैन - विचारको की दृष्टि म यथार्थता या सम्यक्त्व के पाँच दूषण ( अतिचार) माने गये है जो सत्य या यथार्थता को अपने विशुद्ध स्वरूप से जानने अथवा अनुभूत करने में बाधक है । अतिचार वह दोष है जिसमे व्रत-भग तो नही होता लेकिन उसकी सम्यक्ता प्रभावित होती है— सम्यक दृष्टिकोण की यथार्थता को प्रभावित करने वाले तीन दोप है - १ चल, २ मल और ३ अगाढ | चल दोप से तात्पर्य यह है कि व्यक्ति अन्तःकरण में तो यथार्थ दृष्टिकोण के प्रति दृढ रहता है, लेकिन कभी कभी क्षणिक रूप में बाह्य आवेगो में प्रभावित हो जाता है । मल व दोष है जो यथार्थ दृष्टिकोण की निर्मलता को प्रभावित करते है । मल पाच ह : १. शंका - वीतराग या अर्हत् के कथनो पर शका करना उसकी यथार्थता के प्रति सदेहात्मक दृष्टिकोण रखना । १. उत्तराध्ययन, २९।१
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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