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________________ १३८ जन, बोद्ध और गीता का साधना मार्ग कृपण इच्छा का का सुधार करना है । प्रवर्तक धर्म समाजगामी था, इसका मतलब यह था कि प्रत्येक व्यक्ति समाज में रहकर ही मामाजिक कर्तव्य ( जो ऐहिक जीवन से सम्बन्ध रखते हैं ) और धार्मिक कर्तव्य ( जो पारलौकिक जीवन मे सम्बन्ध रखते है ) का पालन करे । व्यक्ति को मामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों का पालन करके अपनी संशोधन करना इष्ट है, पर उम ( मुख की इच्छा ) का निर्मूल नाश करना न शक्य है और न इष्ट । प्रवर्तक धर्म के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के लिए गृहस्थाश्रम जरूरी है । उमे लाँघकर कोई विकास नही कर सकता । निवर्तक धर्म व्यक्तिगामी है । वह आत्ममाक्षात्कार की उत्कृष्ट वृत्ति मे उत्पन्न होने के कारण जिज्ञासु को - आत्मतत्व है या नही ? है तो कैसा है ? क्या उसका माक्षात्कार संभव है ? और है तो किन उपायों मे संभव है ?- - इन प्रश्नों की ओर प्रेरित करता है। ये प्रश्न ऐसे नही है कि जो एकान्त, चिन्तन, ध्यान, तप और असंगतापूर्ण जीवन के सिवाय सुलझ सकें । ऐसा मन्चा जीवन खास व्यक्तियों के लिए ही सम्भव हो सकता है। उनका ममाजगामी होना सम्भव नही ।'' अतएव निवर्तक धर्म समस्त सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों से बद्ध होने की बात नही मानता । उसके अनुसार व्यक्ति के लिए मुख्य कर्तव्य एक ही हैं और वह यह कि जिस तरह हो आत्म-साक्षात्कार का और उसमे रुकावट डालनेवाली इच्छा के नाश का प्रयत्न करे । ' भारतीय चिन्तन में नैतिक दर्शन की ममाजगामी एवं व्यक्तिगामी, यह दो विधाएँ तो अवश्य रही है । परन्तु इनमें कभी भी आत्यन्तिक विभेद स्वीकार किया गया हो ऐसा प्रतीत नही होता। जैन और बौद्ध आचार-दर्शनों में प्रारम्भ में वैयक्तिक कल्याण का स्वर ही प्रमुख था, लेकिन वहां पर भी हमे सामाजिक भावना या लोकहित ने पराङ्मुखता नही दिखाई देती है । बुद्ध और महावीर की संघ व्यवस्था स्वयं ही इन आचार - दर्शनों की मामाजिक भावना का प्रबलतम माध्य है । दूसरी ओर गीता का आचार-दर्शन जो लोक मग्रह अथवा समाज कल्याण की दृष्टि को लेकर ही आगे आया था, उसमे भी वैयक्तिक निवृत्ति का अभाव नही है । तीनों आचार-दर्शन लोककल्याण की भावना को आवश्यक मानते है, लेकिन उसके लिए वैयक्तिक जीवन मे निवृत्ति आवश्यक है । जब तक वैयक्तिक जीवन मे निवृत्ति की भावना का विकास नही होता, तब तक लोक-कल्याण की साधना सम्भव नही है । आत्महित अर्थात् वैयक्तिक जीवन मे नैतिक स्तर का विकास लोकहित का पहला चरण है । मच्चा लोक-कल्याण तभी सम्भव है, जब व्यक्ति निवृत्ति के द्वारा अपना नैतिक विकास कर ले । वैयक्तिक नैतिक विकास एवं आत्म-कल्याण के अभाव मे लोकहित की साधना पाखण्ड है, दिखावा है । जिमने आत्म-विकास नही किया है, जो अपने वैयक्तिक जोवन को नैतिक विकास की भूमिका १. जैनधर्म का प्राण, पृ०५६, ५८, ५९
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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