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________________ १३७ निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग प्रवृत्ति के इस विधान मे से ही सत्य-भाषण, ब्रह्मचर्य, सन्तोप आदि विविध मार्ग निष्पन्न होने है ।' बौद्ध दृष्टिकोण-बौद्ध आचार-दर्शन में निषेधात्मक नैतिकता का स्वर मुखर हुआ है । भगवान् महावीर के समान भगवान् बुद्ध ने भी नैतिक जीवन के लिए अनेक निषेधात्मक नियमों का प्रतिपादन किया है। लेकिन केवल इस आधार पर बौद्ध आचार-दर्शन को निषेधात्मक नीतिशास्त्र नहीं कह सकते। बुद्ध ने आचरण के क्षेत्र में निषेध के नियमों पर बल अवश्य दिया है, फिर भी बौद्ध आचार-दर्शन को निषेधात्मक नही माना जा सकता । बुद्ध ने गहस्थ उपासकों और भिक्षुओं दोनों के लिए अनेक विधेयात्मक कर्तव्यों का विधान भी किया है जिनमे पारस्परिक सहयोग, लोक-मंगल के कर्तव्य मम्मिलित है । लोक-मगल की साधना का स्वर बुद्ध का मूल स्वर है । ___ गोता का दृष्टिकोण-गीता के आचार-दर्शन मे तो निषेध की अपेक्षा विधान का स्वर ही अधिक प्रबल है। गीता का मूलभूत दष्टिकोण विधेयात्मक नैतिकता का है। श्रीकृष्ण यह स्पष्ट कर देना चाहते है कि यद्यपि मानमिक शान्ति और मन की साम्यावस्था के लिए विषय-वामनाओं मे निवृत्त होना आवश्यक है, तथापि इसका अर्थ कर्तव्यमार्ग मे बचना नही है। मामाजिक क्षेत्र मे हमार जो भी उत्तरदायित्व है उनका हमे अपने वर्णाश्रम-धर्म के रूप में परिपालन अवश्य ही करना चाहिए। गीता के ममग्र उपदेश का मार तो यही है कि अर्जुन अपने क्षात्रधर्म के कर्तव्यों का पालन करे । ममाजसेवा के रूप मे यज्ञ और लोकमंग्रह गीता के अनिवार्य तत्त्व है । अतः कहा जा मकता है कि गीता विधेयात्मक नैतिकता की समर्थक है, यद्यपि वह विधान के लिये अनासक्तिरूपी निपेधक तत्त्व को भी आवश्यक मानती है । व्यक्तिपरक बनाम समाजपरक नीतिशास्त्र निवृत्ति और प्रवृति के विषय में एक विचार-दृष्टि यह भी है कि जो आचार-दर्शन व्यक्तिपरक नीतिशास्त्र का प्रतिपादन करते है, वे निवृत्तिपरक है और जो आचारदर्शन ममाजपरक नीतिशास्त्र का प्रतिपादन करते है वे प्रवृत्तिपरक है । किन्तु यह स्पष्ट है कि जो आचार-दर्शन भोगवाद मे व्यक्तिपरक ( स्वार्थ-मुग्ववादी ) दृष्टि रखने है, वे निवृत्तिपरक नही माने जा मकने । संक्षेप मे जो लोक-कल्याण को प्रमन्वता देने है वे प्रवृत्तिमार्गी कहे जाते है तथा जो आचार-दर्शन वैयक्तिक आत्मकल्याण को प्रमुखता देते है वे निवृत्तिमार्गी कहे जाते है । पं० मुग्वलालजी लिम्बने है, 'प्रवर्तक धर्म का मश्क्षेप सार यह है कि जो और जैमी ममाज-व्यवस्था हो उसे इस तरह नियम और कर्तव्यबद्ध बनाना कि जिससे समाज का प्रत्येक मदस्य अपनी-अपनी स्थिति और कक्षा मे मुग्वलाभ करे । प्रवर्तक धर्म का उद्देश्य ममाज-व्यवस्था के साथ-साथ जन्मान्तर १. जैनधर्म का प्राण, पृ० १२६-१२७
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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