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________________ जैनवालगुटका प्रथम नाग। पटाई देनी यह सर्व पात्र दान है। इसका फल भोग भूमि में सुख माग स्वर्गादिक में जाना और परम्पराय (मोक्ष का कारण है। संसान। - - - - देखो जव गरीव से गरीब ब्राह्मण भी किसी वैष्णव मत वाले के पास जाई तो बडे बडे सेठ साहूकार पहले आप उनको प्रणाम करे हैं बैठने को उच्च स्थान देवे हैं । इसी तरह जैनियों को भी चाहिये कि जब कोई गरीब से गरीब मो धर्मात्म जैनी या जैन पंडित या अपनी जैन पाठशाला का भध्यापक अपने पास गावे तो धन का मद छोड पहले आप उस को जय जिनेंद्र करें। और वडे सत्कार से उनको अच्छा स्थान बैठने को देवे । और आवने का कारण पूछे और अपनी शक्ति अनुसार उनकी मदद करे और गौ वच्छे समान उन लें प्रीति राखे उन से जैन धर्म को चर्चा करे और यात्रा जाने वाले निर्धन जैनी या विधवा जैन स्त्री-हो:उन को रेल का किराया रास्ते का खर्च देवे। जैनी पंडितों तथा दूसरे गरीब जैनियों को भोजन देवे वस्त्र देवे. आजीविका लगवाय देवे, नौकरी करवाय देवे: दलाली क्ताय देवे, पूंजी देकर दुकान कराय देवे. थोडे सूद पर रकम दे कर व्योहार में सहारा लगाय देवे । उनको कपडे ले या अनाज से तंग देख दो चार रुपये का उनके घर भिजवाय देवे, जो विमार हो उन्हें दवा देवे, इलाज कराय टेवे . : जो जेन पंडित मंदिर में शास्त्र पढ कर अपने को सुनाता हो या जैन पाठशाला में जो अध्यापक अपने बालकों को पढ़ाता हो सो जव कमी अपने घर में कोई व्याह हो सगाई हो त्यौहार हो या कोई और खुशी का मौका हो या जव कनी घागसे फल या सवजों आवे तो कुछ उन को भी भेजा करें और जैन बालकों को चाहिये कि अपने घर में जब कभी खुशी का मौका हो तो अपनो जैन पाठशाला के भध्यापक को ऐसे मौके पर जरूर दे आया करें। जब जैन पाठशाला में अपने घर से कुछ खाने को लेजावें या वहां फल फलेरी वगैरा खरीदे तो पहले अध्यापक के भागे कर देखें जब उस में से अध्यापक ले लेवे तव भाप खावें इस प्रकार सरल प्रणामी जो भगवान का पूजन पाउ दर्शन स्वाध्याय सामायिक मादि करने वाले जो गरीव जैनी पुरुष स्त्री बाल तथा मंदिर में शास्त्र सुनाने वाले जैन धर्म का उपदेश देने वाले जिनवाणी का प्रचार करने वाले जे जैनो पंडित तथा जैन पाठशालाओं में जैन पुस्तकोंकेपटाने वाले जे जैन अध्यापक तथा जैनतीर्थो कोसने वाले जे निर्धननैन पुरुष स्त्री उनको दान देना यह समदान है। यह समदान पात्रं दानसे जरा उतरता है यह भी महान पुण्य का नाता भोग भूमि और स्वर्गादिक के सुख देने वाला है ।।
SR No.010200
Book TitleJain Bal Gutka Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Jaini
PublisherGyanchand Jaini
Publication Year1911
Total Pages107
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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