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________________ जैनवालगुटका प्रथम भाग कम्मे की बाबत जाने सो'कर्म के जानने का क्रम यह है ॥ . कर्मका मागमन किस प्रकार होता है ।। (शुभकर्मका मागमन रूपमाभव में पुण्य और अशुभ कर्म का आगमन रूप आभत्र में पाप मन्तर्गत है।।' कर्म को बन्ध किस प्रकार होता है। कर्म का भावना किस प्रकार रुक सका है। ४. "जो कर्म आत्मा के प्रदेशों में बंध रूपं होते हुए बढ़ते रहते हैं उनका घटना किस प्रकार होता है यानि उनको निर्जरा किस प्रकार होती है। : ५.मात्मा से सारे कर्म किस प्रकार हट सकते हैं अर्थात् क्षय को प्राप्त हो सके हैं और जब सारे कम्भ नष्ट हो जावे तब इस आत्मा का क्या रूप होता है पस:पांच वाते यह और दो जीव--अजीव जो पहले वियान.. करे इस लिये इस जीव को . जगत भ्रमण.से.डावने के लिये इन सात पदार्थों ( तत्वों ) का जानना ही कार्य कारी है इस लिये जिनमत में सात ही तत्त्व माने हैं ...:. . . . . . . ... . . ७ तत्त्वों का स्वरूपा. . . . १. जीव-जीव उसको कहते हैं जिस में चेतना लक्षण हो अर्थात् जो. जाने है. देखे है करता है दुःख सुखका भोक्ता है, अरक्ता कहिये तजने हारा है, उत्पाद, व्यय, धौव्या, गण सहित है, असंख्यात प्रदेशी लोक प्रमाण है और प्रदेशों का संकोच विस्तार कर शरीर प्रमाण है उसे जीव कहते हैं पुद्गल में अनंत गुणहै परंतु जानना, देखना, भोगना आदि गुण जीव में ही हैं पद्गल में यह गुण नहीं न पदगल (मजीव) को समझ है। यानि नेक बदकी तमीज नहीं, न पुद्गल को दीखे है न पुदगल दुःख सुख-मालम करता है यह गुण-आत्मा में हो हैं इसी से जाना जाय है कि जोष पुद्गल से अलग है.जब इस शरीर में सें जीव निकल जाता है तब शरीर में समझने की देखने की दुःख सुख मालूम करने की ताकत नहीं रहती. सो जीवके दो भेद हैं सिद्ध और संसारी उस में संसारी के दो भेद हैं एक भव्य दूसरा अभव्य जो मुक्ति होने योग्य है उसे भव्य कहिये और कोरडू (कुडा ) उडद समान जो कमी. भी न सीझे उसे अभन्य कहिये भगवान के भाषे तत्त्वों का श्रद्धान भव्य जीवों के ही होय. भमन्य के न होय ॥ ३ अंजीव-जीव अधेतन को कहते हैं जिस में स्पर्श रस, गंध भौर वर्णमादि. भनंत गुण हैं परंतु उसमें चेतना लक्षण नहीं है अर्थात् जिस में जानने देखने दुःख __सुख भोगने की शक्ति आदि गुण नहीं वह मजीव (जड़) पदार्थ है !" , . , , .
SR No.010200
Book TitleJain Bal Gutka Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Jaini
PublisherGyanchand Jaini
Publication Year1911
Total Pages107
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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