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________________ जैनवालगुटका प्रथम माग लदा प्रथम सुखम सुखमा काल की रीति रहे है मध्य भोग भूमि में जो दूसरा सुखमा काल उसकी रीति रहे है जघन्य भोग भूमि में सुखमदुनमा जो तीसरा काल सदा उसकी रीति रहे है और महाविदेह क्षेत्रों में सदा दुखमसुखमा , जो चौथा काल उसकी रीति रहे है और अंत के आधे स्वयम्भू रमण समुद्र में तथा चारों कोण विषे तथा अन्त के आधे द्वीप में तथा समुद्रों के मध्य जितने क्षेत्र हैं उनमें सदा दुखमा जो पंचम काल उसकी रीति रहे है ओर नरक में सदा दुखम दुखमा जो छठा काल सदा उसकी रीति रहे है सिवाय भरत और ऐरावत क्षेत्र के बाकी सव क्षेत्रों में एक ही रीति रहे हैं सिरफ माय कायादिक का. घटना बदना रीति का पलटना मरत क्षेत्रों और ऐरावत क्षेत्रों में ही होय है भवसर्पणी के छैः काल में दिन बदिन जीवों के सुख आयु काय घटते हुए चले जाव हैं उत्सर्पणी के छहों काल में दिनवदिन बढ़ते हुए चले जाय हैं ॥ ६-काल के नाम । । . . . १ सुखमसुखमा, २ सुखमा, ३ सुखम दुःखमा, ४ दुःखम सुखमा, ५ दुःखमा, ६ दुखमदुःखमा I.. I.. ६-काल की अवधि। . . प्रथम काल ४ कोटा कोटि सागर का होय है । दूसरा ३ कोटा कोटि सागर का, तीसरा २ कोटा कोटि सागर का, चौथा.४२ हजार. वर्ष घाट १ कोटा कोटि सागर का, पंचम २१ हजार वर्ष का, छठा २१ हजार वर्ष का होय है ।। नोट-प्रथम काल में महान सुख होता है दूसरे में सुख होता है दुःख नहीं परन्तु जैसा सुख प्रथम में होता है वैसा नहीं उस से कुछ कम होता है, तीसरे में सुख है परन्तु किसी किसी को कुछ लेश मात्र दुःख भी होता है चौथे में दुःख और सुख दोनों होते हैं पुण्यवानों को सुख होता है और पुण्यहीनों को दुःख होताहै बल्कि वाजवकत पुण्यवानों को भी दुःख होजाता है पांचवें में दुःख ही है सुख नहीं सुख नाम उसका है जिसे दुश्ख न होवे सो पञ्चम काल के जीवों को किसी को कुछ दुःख है किसी को कुछ दुःख है जिस प्रकार कोई दुखी पुरुष जब सो जाता है. उसे अपने दुःख का स्मरण नहीं रहता इसी प्रकार जब इस पंचम काल के जीव किसी विणे में रत हो जाते हैं तो जो दुःख उनके अन्तष्करणमें है उसे भूल अपने तई सुखी माने हैं जव उनको फिर दुःखयाद आवे है वह फिर दुःख मानते हैं । इसलिये पंचम काल में दुल ही है सुख नहीं छठे काल में महादुःख है।
SR No.010200
Book TitleJain Bal Gutka Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Jaini
PublisherGyanchand Jaini
Publication Year1911
Total Pages107
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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