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________________ जैनवालगुटका प्रथम भाग। २४ लाख बनस्पतिकाय। प्रत्येक बनस्पति १० लाख, नित्यनिगोद ७ लाख, इतर निगोद ७ लाख ॥ नोट-नित्यनिगोद और इतर निगोद दोनों वनस्पति कायम शामिल हैं और यह दोनो साधारणही होती हैं फेवल १० लाख वनस्पति प्रत्येक होती है। प्रत्येक उसको कहते हैं जो एक शरीर में एक जोव हो, साधारण उसको कहते हैं जो एक शरीर में अनेक जीव हो। ३२ लाख बसकाय। विकलत्रय ६ लाख, पंचेद्रिय २६ लाख। ६ लाख विकलचय। बेइंद्रिय २ लाख,तेइंडिय २ लाख,चौइंद्रिय २ लाख । नोट-वेइ द्रिव यानि दो इन्द्रिय वाले जीव तेइन्द्रिय याति तीन इन्द्रिवधारी जोव और चार इन्द्रिय धारनेवाले जीव यह तीनो जानिके जीव विकलभय कहलातेहैं। २६ लाख पंचेंद्रिय। मनुष्य१४ लाख, नारकी४ लाख, देव ४ लाख, पशु४लाख। चार लाख पश। शेर बगैरा दरिन्दे गौ वगैरा चरिन्दे चिड़िया वगैरा परिन्देसांप गोह धगैरा जो पञ्चेन्द्रिय जीव जमीनमें रहते हैं मोर मच्छी वगैरा जो पञ्चेन्द्रिय जीव जलमें रहते हैं यह सर्व चार लाख पशुपर्यायमें शामिल हैं। ६२ लाख तिर्यंच। __५२ लाख स्थावर, ६ लाख विकलत्रय, और ४ लाख पशु यह सर्व ६२ लाख जातिके जीव तिर्यच कहलाते हैं। ___ भोट-विर्यच शब्द का अर्थ तिरछा चलने वाला भी है और कुटिल परिणामी भी है सो स्थावरचल नहीं सके इस लिये यहां तिरछा चलने पाला अर्थ महीं बन
SR No.010200
Book TitleJain Bal Gutka Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Jaini
PublisherGyanchand Jaini
Publication Year1911
Total Pages107
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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