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________________ आचार्य चरितावली रोहगुप्त जो पास के दूसरे गाव में थे, वह भी वहा चले आये । परिव्राजक की ओर से शास्त्रार्थ का डका बज रहा था । जव रोहगुप्त ने इसे सुना तो जोश में पड़ह झेल लिया और कहा-“मैं चर्चा करू गा।" मिलने पर उसने सारी बाते अपने गुरु आचार्य से निवेदन की ।।१०।। .॥ लावणी ॥ बोले गुरुवर वात भली नाह कीनी, ' वादी की शक्ति नहि तुमने चीन्ही । विद्या से उन्मत्त पराजित हो कर, पीड़ा देगा विद्या से वह पामर । गुरु ने दी विद्या रक्षरणहित भारी ॥ले कर०॥१०७॥ अर्थः-रोहगुप्त की वात सुनकर प्राचार्य वोले-"शिष्य ! पोट्टशाल से शास्त्रार्थ स्वीकार कर तूने अच्छा नही किया । वह मायावी और शक्तिमान् है । तुमने उसको पहचाना नहीं है । वह यदि पराजित भी हो गया तो विद्यावल से तुमको कष्ट देगा । किन्तु शास्त्रार्थ स्वीकार कर लिया है अत तुम्हारे संरक्षण हेतु सात विद्याए मै तुम्हे देता हूं। इनका आवश्यकतानुसार उपयोग करने से तुम हार से बच जानोगे ।।१०७॥ ॥लावरणी।। वादी बोला तत्त्व दोय है जग में, कहा रोह ने तीजा देखो पग में । जीव, अजीव, नोजीव जान लो ऐसे, कटी पुच्छ हलचल करती यह कैसे । पोट्टशाल की हो गई हार करारी ॥ले कर०॥१०८।। अर्थः-शास्त्रार्थ प्रारंभ करते हुए वादी ने पूर्वपक्ष रखा- "ससार मे दो तत्त्व है । जीव और अजीव यानि जड एव चेतन।" . . . रोहगुप्त ने इसका खण्डन करते हुए कहा-"नही, जीव अजीव और
SR No.010198
Book TitleJain Acharya Charitavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Gajsingh Rathod
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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