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________________ प्राचार्य चरितावली ११६ पराई होने से बुरी है । किन्तु गुणवादी जहाँ भी गुण देखता है उसे अपना समझता है, उससे प्रेम करता है। दृष्टि-राग को छोड कर गुण के भक्त वनो, गुणग्रहण करने से अपना जीवन उन्नत होगा। वास्तव मे साधन से वीतराग भावरूप साध्य को प्राप्त करना ही अविकारी होने का मार्ग है ॥२०॥ || लावणी॥ सहस बीस एक पंचमकाल कहावे, अन्त समय तक शासन सत्व बताये। चढ़ उतार की रीति सदा चल पावे, उदय अस्त समरूप जानी जन गावे । अन्त समय भी होगा भव-अवतारी ॥ लेकर० ॥२०६।। अर्थः इस समय पचम काल चल रहा है जो इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण का है । ढाई हजार वर्ष के लगभग का समय वीत चुका है, अभी १८५०० वर्ष से अधिक शेप है। शास्त्रीय मान्यता के अनुसार अन्त समय तक साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध सघ का अस्तित्व माना गया है । उन्नति अवनति का क्रम, चढाव उतार के रूप मे सदा से चला पा रहा है। इसी को स्थूल दृष्टि से शासन का उदय और अस्त कहा गया है। अन्तकाल तक भी एक भव करके मुक्ति प्राप्त करने वाली आत्माए होगी। फिर आज ही हताश होने जेसी क्या वात है ? ॥२०६।। आवश्यकता है: ॥ लावणी ॥ शिथिल संघ को देख न चित अकुलावे सुप्त पराक्रम को कुछ तेज करावे । अर्थ-लाभ सम धर्म-लाभ मन भावे, । जन जन मे शासन की जोत जगावें। धर्म मिशन हित त्याग करो नर नारी॥लेकर।.२०७।।
SR No.010198
Book TitleJain Acharya Charitavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Gajsingh Rathod
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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