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________________ १०८ आचार्य चरितावली लावरणी॥ प्रथम चरण में अनुशासन को ढीला, देख श्रमरणगरण के मन में हुई पीला । महासभा अध्यक्ष सूरि पे जावे, प्रायश्चित निर्णय में भेद पड़ावे । दो धारा का वाद चला दुखकारी लेकर०॥१८७॥ अर्थ:-जव तक अपवाद और प्रायश्चित्त का खुलासा नहीं हो जाय तव तक ध्वनियंत्र पर बोलना अनुशासन की उपेक्षा करना था। फिर भी समझ भेद से कुछ वोल गये । प्रथम चरण मे हो अनुशासन की उपेक्षा हो तव भविष्य मे अनुशासन कैसे रहेगा? सघ प्रेमियों के मन में वडी चिन्ता हुई । आचार्य श्री की सेवा मे महासभा के अध्यक्ष ने जा कर अर्ज की, प्राचार्य श्री ने उपाचार्य श्री को अवगत करके एक निर्णय प्रकट करने का फरमाया पर उपाचार्य श्री को बिना बतलाये ही उसे प्रकट कर देने से दोनो महापुरुपो के वीच भेद पड़ गया। फिर दो धारा-एक धारा को ले कर वाद चला, जो सघ की उन्नति मे बडा विघ्न रूप (वाधक स्वरूप) सिद्ध हुआ। लावरगो॥ म ख्य मंत्री वाचस्पति मन अकुलाये, त्यागपत्र में अपने भाव , बताये। गरिगवर से नहि समाधान कर पाये, यत्न करत भी प्रश्न सुलझ नहि पाये। - शुद्धिकरण और पर्व में उलझे भारी ॥लेकर०॥१८॥ - अर्थ - भीनासर सम्मेलन मे वाचस्पति मदनलालजी महाराज को प्रधानमंत्री बनाया गया था। पर अनुशासन हीन स्थिति को देखकर आपके मन मे वड़ा दुख हुआ । उन्होने आचार्य श्री की सेवा मे, अपना समाधान न होने की स्थिति में त्यागपत्र दे दिया। पत्राचार मे आचार्य श्री से समाधान नहीं हो सका फिर प्राचार्य श्री ने मिल कर बात करने का प्रस्ताव
SR No.010198
Book TitleJain Acharya Charitavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Gajsingh Rathod
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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