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________________ २४ श्राचार्य चरितावलो मेद पाट में पृथ्वीचन्द मुनि गाजे, पूज्य मनोहर यू० पी० में शुभ राजे । धर्मदास के गरण की महिमा भारी || लेकर० ॥ १६२॥ अर्थः- पूज्य धर्मदासजी के तृतीय शिष्य श्री रामचन्द्रजी ने मालव क्षेत्र को पावन किया । पीछे इन के अनुगामी सतो में से कुछ का दीर्घ काल तक मरुधर प्रदेश मे विचरण रहा जो ग्राज ज्ञानचन्दजी महाराज की परम्परा के नाम से प्रसिद्ध है | चतुर्थ मिप्य श्री पृथ्वीचन्दजी मेवाड मे सुशोभित हुए । उनकी परम्परा का अधिकांश विस्तार मेवाड मे ही रहा । पाचवे शिष्य पूज्य श्री मनोहरलालजी महाराज से एक सत परम्परा चली जो उत्तर प्रदेश के निकट क्षेत्रो मे विचरण करती रही । इस प्रकार धर्मदासजी महाराज के शिष्य गण चहुं ओर फैले जिनको आज भी वडी महिमा गाई जा रही है ॥ १६२॥ पूज्य धन्नाजी महाराज की परम्परा से जो कुल उपकुल निकले उनका परिचय निम्न प्रकार है - in ॥ लावणी ॥ 1 धन्नाजी का भूधर शिष्य सुभागी, महातपस्वी शान्त पूर्ण वैरागी रघुपत, जयमल, कुशल पूज्य हुए नामी, परम्परा तीनो की है अभिरागी । भूधर वंश की महिमा अति विस्तारी || लेकर०।१६३|| अर्थः- पूज्य धन्नाजी के प्रमुख शिष्य भूधरजी वडे प्रतिभाशाली हुए । आाप वडे तपस्वी, शान्त और पूर्ण वैराग्यवान् थे । सूधरजी के अनेक शिप्यो मे श्री रघुनाथजी, श्री जयमलजी और श्री कुशलजी मुख्य हुए । इन तीनों की शिष्य परम्परा ग्राज भी उत्तम रीति से चल रही है । भूधर बंग की इन्होने बहुत महिमा फेलाई || १६३॥
SR No.010198
Book TitleJain Acharya Charitavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Gajsingh Rathod
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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