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________________ श्रावकाचार : ८५ श्रावक के बारह व्रतों में से प्रथम पाँच अणुव्रत, वाद के तीन गुणन्नत एवं अन्तिम चार शिक्षानत कहलाते हैं । यद्यपि श्वेताम्वर व दिगम्बर ग्रंथो मे गुणवतो एवं गिक्षानतो के नामो व गणनाक्रम मे परस्पर एवं आन्तरिक दोनो प्रकार के मतभेद है तथापि यह कहा जा सकता है कि दिशापरिमाण, भोगोपभोगपरिमाण एव मनर्थदण्डविरमण रूप गुणनत तथा सामायिक, देशावकाशिक, पौपघोपवास एवं अतिथिसंविभाग रूप शिक्षाक्त साधारणतया अभीष्ट एवं उपयुक्त हैं । उपासकदगांग मे गुणवतो एवं शिक्षाव्रतों का सयुक्त नाम शिक्षावत ही दिया है तथा पच-अणुव्रतो व सप्त-शिक्षावतो को द्वादश प्रकार के गृहस्थ-धर्म के अग कहा है। अणुव्रत: श्रमण के अहिंसादि पाँच महाव्रतो की अपेक्षा लघु होने के कारण श्रावक के प्रथम पाँच व्रत अणुव्रत अर्थात् लघुव्रत कहलाते हैं। जिस प्रकार सर्वविरत श्रमण के लिए पाच महाव्रत प्राणभूत हैं उसी प्रकार श्रावक के लिए पांच अणुव्रत जीवनरूप हैं । जैसे पांच महाव्रतों के अभाव मे श्रामण्य निर्जीव होता है वैसे ही पॉच अणुव्रतो के अभाव में श्रावक-धर्म निष्प्राण होता है। यही कारण है कि अणुव्रतो को श्रावक के मूलगुण कहा गया है। इस दृष्टि से दिशापरिमाणादि शेष सात व्रतो को श्रावक के उत्तरगुण कह सकते हैं। इस प्रकार जैसे मुनि अर्थात् श्रमण के गुण मूल एव उत्तर गुणरूप दो विभागो मे विभक्त हैं
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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