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________________ ८६ : जैन आचार वैसे ही श्रमणोपासक श्रावक के गुण भी मूलगुण एवं उत्तरगुण के रूप में विभाजित हैं । मूलगुण श्रमण-धर्म अथवा श्रावक-धर्म के आधारभूत स्तम्भ है । उत्तरगुण मूलगुणो की पुष्टि एव दृढता के लिए हैं। श्रावक के मूलगुणरूप पाँच अणुव्रतो के नाम इस . प्रकार है . १. स्थूल प्राणातिपात-विरमण, २. स्थूल मृषावादविरमण, ३. स्थूल अदत्तादान-विरमण, ४ स्वदार-सतोष, ५. इच्छा-परिमाण । १. स्थूल प्राणातिपात-विरसण-सर्वविरत अर्थात् महाव्रती मुनि प्राणातिपात अर्थात् हिंसा का पूर्ण त्यागी होता है (प्रमादजन्य अथवा कषायजन्य हिंसा का सर्वथा त्याग करता है) जव कि देशविरत अर्थात् अणुव्रती श्रावक केवल स्थूल हिंसा का त्याग करता है क्योकि गृहस्थ होने के नाते उसे अनेक प्रकार से सूक्ष्म हिंसा तो करनी ही पड़ती है। इसीलिए श्रावक का प्राणातिपातविरमण अर्थात् हिंसा-विरति स्थूल है-दीर्घ है। श्रमण की सर्व हिंसा-विरति की तुलना मे श्रावक की स्थूल हिंसा-विरति देशविरति अर्थात् आशिक विरति कही जाती है। इसके द्वारा व्यक्ति आशिक अहिंसा की साधना करता है-अहिंसावत का आंशिक रूप से पालन करता है। श्रमण मन, वचन अथवा काया से किसी भी प्राणी की-चाहे वह त्रस हो अथवा स्थावर-न तो हिंसा करता है, न किसी से करवाता है और न करने वाले का समर्थन ही करता है। इस प्रकार श्रमण हिंसा का तीन योग (मन, वचन व काया) और तीन करण (करना, करवाना व अनुमोदन करना) पूर्वक त्याग करता है। उसका यह त्याग
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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