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________________ जैन आचार-ग्रन्थ : ६५ उद्देश हैं । पहले उद्देश मे निष्कपट और सकपट आलोचक, एकलविहारी साधु आदि से सम्बन्धित प्रायश्चित्तो का विधान है। दूसरे उद्देश मे समान सामाचारी वाले दोपी साधुग्रो से श्चित्त, सदोप रोगी की सेवा, अनवस्थित आदि की पुन. संयम मे स्थापना, गच्छ का त्याग कर पुनः गच्छ मे मिलने वाले की परीक्षा एवं प्रायश्चित्तदान आदि पर प्रकाश डाला गया है। तीसरे उद्देश मे निम्नोक्त बातो का विचार किया गया है गच्छाधिपति की योग्यता, पदवीधारियो का आचार, तरुण श्रमण का आचार, गच्छ में रहते हुए अथवा गच्छ का त्याग कर अनाचार सेवन करने वाले के लिए प्रायश्चित्त, मृषावादी को पदवी प्रदान करने का निषेध । चतुर्थ उद्देश् में निम्न विषयो पर प्रकाश डाला गया है. आचार्य आदि पदवीधारियो का श्रमण-परिवार, आचार्य आदि की मृत्यु के समय श्रमणों का कर्तव्य, युवाचार्य की स्थापना इत्यादि। पचम उद्देश साध्वियों के आचार, साधु-साध्वियो के पारस्परिक व्यवहार; वैयावृत्य आदि से सम्बन्धित है। षष्ठ उद्देश निम्नोक्त विषयों से सम्बन्धित है । साधुओ को अपने सम्बन्धियो के घर कैसे जाना चाहिए, आचार्य आदि के क्या अतिशय हैं, शिक्षित एवं अशिक्षित साधु मे क्या विशेपता है, मैथुनेच्छा के लिए क्या प्रायश्चित्त है इत्यादि। सातवें उद्देश मे निम्न वातो पर प्रकाश डाला गया है : संभोगी अर्थात् साथी साधु-साध्वियो का पारस्परिक व्यवहार, साधु-साध्वियो की दीक्षा-प्रव्रज्या, साधु-साध्वियो के आचार की भिन्नता, पदवी प्रदान करने का समुचित समय, राज्यव्यवस्था में परिवर्तन होने की स्थिति मे श्रमणो का कर्तव्य
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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