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________________ ६४ : जैन आचार विचार किया गया है। तृतीय उद्देश मे उपाश्रय-प्रवेश, चर्म, वस्त्र, समवसरण, अन्तरगृह, शय्या-संस्तारक, सेना आदि से सम्बन्धित विधि-विधान है । चतुर्थ उद्देश मे बताया गया है कि हस्तम, मैथुन एवं रात्रिभोजन अनुद्घातिक अर्थात् गुरु प्रायश्चित्त के योग्य हैं। दुष्ट एवं प्रमत्त श्रमण के लिए पारांचिक प्रायश्चित्त का विधान है। सार्मिक स्तैन्य, अन्यधार्मिक स्तैन्य एवं मुष्टिप्रहार आदि के लिए अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त की व्यवस्था है। पंडक, क्लीव आदि प्रव्रज्या के अयोग्य है। निग्रंथ-निन्थियों को कालातिक्रान्त एव क्षेत्रातिक्रान्त अगनादि ग्रहण करना अकल्प्य है। उन्हें गगा, यमुना, सरयू, कोशिका एव मही नामक पॉच महानदियाँ महीने में एक बार से अधिक पार नहीं करनी चाहिए। ऐरावती आदि छोटी नदियां महीने मे दो-तीन बार पार की जा सकती है। पचम उद्दश मे ब्रह्मापाय, परिहारकल्प, पुलाकभक्त आदि दस प्रकार के विपयों से सम्बन्धित दोषो व प्रायश्चित्तों का प्रतिपादन किया गया है। षष्ठ उद्देश मे बताया गया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियो को छ प्रकार के वचन नही वोलने चाहिए: अलीक वचन, होलित वचन, खिसित वचन, परुष वचन, गाई'स्थिक वचन और व्यवशमितोदीरण वचन । कल्पस्थिति-आचारमर्यादा छः प्रकार की बताई गई है : सामायिकसयतकल्पस्थिति, छेदोपस्थापनीयसंयतकल्पस्थिति, निर्विशमानकल्पस्थिति, निविष्टकायिककल्पस्थिति, जिनकल्पस्थिति और स्थविरकल्पस्थिति । व्यवहार वृहत्कल्प और व्यवहार परस्पर पूरक हैं । व्यवहार सूत्र मे दस
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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