SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन आचार-ग्रन्थ : ६१ जाता है उसी प्रकार अठारह वातो का विचार करने से चंचल चित्त स्थिर हो जाता है, इत्यादि । विविक्तचर्या नामक द्वितीय चूलिका मे साधु के कुछ कर्तव्याकर्तव्यों का प्रतिपादन किया गया है। आचाराग, उत्तराध्ययन और दशवैकालिक मे कुछ बातें शब्दशः व कुछ अर्थत. मिलती-जुलती हैं। आवश्यक: आवश्यक का समावेश भी मूलसूत्रों में होता है। इसमे नित्य __ के कर्तव्यो-आवश्यक अनुष्ठानों का प्रतिपादन किया गया है। इसके छः अध्ययन हैं : १ सामायिक, २ चतुर्विंशतिस्तव, ३ वंदन, ४. प्रतिक्रमण, ५. कायोत्सर्ग, ६. प्रत्याख्यान । सामायिक मे यावज्जीवन-जीवनभर के लिए सब प्रकार के साबध योग-पापकारी कृत्यों का त्याग किया जाता है। चविशतिस्तव मे चौबीस तीर्थकरो की स्तुति की जाती है। वदन में गुरु का नमस्कारपूर्वक स्तवन किया जाता है। प्रतिक्रमण मे व्रतों मे लगे अतिचारो की आलोचना की जाती है एवं भविष्य में उन दोषो की पुनरावृत्ति न करने की प्रतिज्ञा की जाती है। कायोत्सर्ग मे शरीर से ममत्व भाव हटाकर उसे ध्यान के लिए स्थिर किया जाता है। प्रत्याख्यान मे एक निश्चित अवधि के लिए चार प्रकार के आहारअशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का त्याग किया जाता है। दशाभूतस्कन्धः दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ, महानिशीथ और जीतकल्प छेदसूत्र कहलाते हैं। संभवतः छेद नामक प्रायश्चित्त
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy