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________________ ६० : जैन आचार अध्ययन पट जीवनिकाय से सम्बन्धित है। इसमे पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय व त्रसकाय को मन, वचन व तन से हानि पहुंचाने का निषेध किया गया है तथा सर्व प्राणातिपात-विरमण, मृपावाद-विरमण, अदत्तादान-विरमण, मैथुन-विरमण और परिग्रह-विरमणरूप महानतो एवं रात्रिभोजनविरमणरूप व्रत का प्रतिपादन किया गया है। पांचवाँ पिण्डैपणा अध्ययन दो उद्देशो मे विभक्त है। इनमे भिक्षासम्बन्धी विविध विधि-विधान है । छठे अध्ययन का नाम महाचारकथा है । इसमे चतुर्थ अध्ययनोक्त छ. व्रतो एव छ जीवनिकायो की रक्षा का विशेप विचार किया गया है। सातवाँ अध्ययन वाक्यशुद्धि से सम्बन्धित है। साधु को हमेशा निर्दोप, अकर्कश एवं असंदिग्ध भापा बोलनी चाहिए। आठवे अध्ययन का नाम आचारप्रणिधि है । इसमे मन, वचन अ. र काय से पटकाय जीवो के प्रति अहिंसक आचरण के विषय मे अनेक प्रकार से विचार किया गया है। विनयसमाधि नामक नवाँ अध्ययन चार उद्देशो मे विभक्त है। इनमे श्रमण के विनयगुण का विविध दृष्टियो से व्याख्यान किया गया है। सभिक्षु नामक दसवे अध्ययन में बताया गया है कि जिसकी ज्ञातपुत्र महावीर के वचनो मे पूर्ण श्रद्धा है, जो पट्काय के प्राणियों को आत्मवत् समझता है, जो पांच महाव्रतो की आराधना एवं पाँच पास्रवो का निरोध करता है वह भिक्षु है, इत्यादि । रतिवाक्य नामक प्रथम चूलिका मे चंचल मन को स्थिर करने का उपाय बताते हुए कहा गया है कि जैसे लगाम से चचल घोड़ा वश मे हो जाता है, अकुश से उन्मत्त हाथी वश मे आ
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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