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________________ ५४ • जैन आचार अध्ययन मे आन्तरिक व बाह्य शीत-उष्ण की चर्चा है। इसमे यह बताया गया है कि श्रमण को शीतोष्ण स्पर्श, सुख-दुःख, अनुकूलप्रतिकूल परीपह, कषाय, कामवासना, शोक-संताप आदि को सहन करना चाहिए तथा सदैव तप-संयम-उपशम के लिए उद्यत रहना चाहिए । प्रथम उद्देश मे असयमी का, द्वितीय उद्देश मे असयमी के दुख का, तृतीय उद्देश मे केवल कष्ट उठानेवाले श्रमण का एवं चतुर्थ उद्देश मे कषाय के वमन का वर्णन है। सम्यक्त्व नामक चतुर्थ अध्ययन भी चार उद्देशों मे विभक्त है। प्रथम उद्देश मे सम्यकवाद अर्थात् यथार्थवाद का विचार किया गया है। द्वितीय उद्देश मे धर्मप्रावादुको की परीक्षा का, तृतीय उद्देश मे अनवद्य तप के आचरण का तथा चतुर्थ उद्देश मे नियमन अर्थात् संयम का वर्णन है। इन सबका तात्पर्य यह है कि संयमी को सदेव सम्यक ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र मे तत्पर रहना चाहिए । पंचम अध्ययन का नाम लोकसार है । यह छ. उद्देशो मे विभक्त है। इसका दूसरा नाम आवती भी है क्योकि इसके प्रथम तीन उद्देशो का प्रारम्भ इसी शब्द से होता है । लोक मे धर्म ही सारभूत तत्त्व है। धर्म । का सार ज्ञान,ज्ञान का सार संयम व सयम का सार निर्वाण है। प्रस्तुत अध्ययन मे इसी का प्रतिपादन किया गया है। प्रथम उद्देश मे हिंसक, समारंभकर्ता तथा एकलविहारी को अमुनि कहा गया है। द्वितीय उद्देश मे विरत को मुनि तथा अविरत को परिग्रही कहा गया है। तृतीय उद्देश मे मुनि को अपरिग्रही एव कामभोगो से विरक्त बताया गया है। चतुर्थ उद्देश मे अगीतार्थ के मार्ग मे आने वाले विघ्नो का निरूपण है । पंचम उद्देश मे मुनि को ह्रद अर्थात्
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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