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________________ जैन आचार-ग्रन्थ : ५३ तृतीय अध्ययनों के तीन-तोन और अन्तिम चार अध्ययनों के दोदो उद्देश हैं। द्वितीयादि चूलाओ के अध्ययन एक-एक उद्देश के रूप मे ही हैं। उपलब्ध समग्न जैन साहित्य मे आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध प्राचीनतम है, यह इसकी प्राकृत भाषा, तनिष्ठ शैली व तद्गत भावो से सिद्ध है। इसके प्रथम अध्ययन शस्त्रपरिज्ञा के सात उद्देशो मे हिंसा के साधनो अर्थात् शस्त्रो का परिज्ञान कराते हुए उनके परित्याग का उपदेश दिया गया है। जीवविषयक सयम इस अध्ययन का प्रतिपाद्य विषय है। प्रथम उद्देश मे जीव का सामान्य निरूपण करके द्वितीयादि उद्देशो मे पट जीवनिकायो का क्रमश. वर्णन किया गया है। प्रत्येक उद्देश मे यह प्रतिपादित किया गया है कि जीववध से कर्मों का वन्ध हाता है अतएव विरति ही कर्तव्य है। लोकविजय नामक द्वितीय अध्ययन छ उद्देशो मे विभक्त है। इसका प्रतिपाद्य विषय लोक का बंधन व उसका घात है। इसके छ. उद्देशो का अधिकार अर्थात् प्रतिपाद्य विषय क्रमशः इस प्रकार है : १ स्वजनो मे आसक्ति का परित्याग, २ संयम मे शिथिलता का परित्याग, ३ मान और अर्थ मे सारदृष्टि का परित्याग, ४. भोग मे आसक्ति का परित्याग, ५. लोक के आश्रय से सयम-निर्वाह, ६. लोक मे ममत्व का परित्याग । 'लोकविजय' का शब्दार्थ है कपायरूप भावलोक का औपशमिकादि भावो द्वारा निरसन । शीतोष्णीय नामक तृतीय अध्ययन चार उद्देशो मे विभक्त है । सत्कार आदि अनुकूल परीपह शीत तथा अपमान आदि प्रतिकूल परीषह उष्ण कहे जाते हैं। प्रस्तुत
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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