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________________ जैन दृष्टि से चारित्र - विकास : ४७ 1 उच्छेद के कारण शमसुख -- अपूर्वं शान्ति की अनुभूति होती कर्ममल क्षीणप्रायः हो जाता है । इस अवस्था को पातंजल योगदर्शन की परिभाषा मे प्रशान्तवाहिता कह सकते 1 परादृष्टि व समाधि : आठवी परादृष्टि योग के अन्तिम अंग समाधि के समकक्ष है । धारणा से प्रारम्भ होने वाली एकस्य चित्तता ध्यानावस्था को पार करती हुई समाधि मे पर्यवसित होती है । धारणा मे चित्तवृत्ति की स्थिरता एकदेशीय अर्थात् अप्रवाहरूप होती है । ध्यान मे चित्तवृत्ति का एकाकार प्रवाह चलता है किन्तु वह सतत धारारूप नही होता अपितु थोडे समय वाद - अन्तमुहूर्त मे उसका विच्छेद हो जाता है । समाधि मे चित्तवृत्ति का प्रवाह अविछिन्न रूप से बहता है । इसमे एकाग्रता स्थायी होती है क्योकि यहाँ ध्यान मे विक्षेप करने वाले कारणों का अभाव होता है | परादृष्टि मे बोध चन्द्र के उद्योत के समान शान्त एवं स्थिर होता है । यहाँ प्रवृत्ति गुण की प्राप्ति होती है अर्थात् प्रभादृष्टि मे प्राप्त प्रतिपत्ति गुण इस दृष्टि पूर्णता को प्राप्त होता है । परिणामतः आत्मा की स्वगुण मे अर्थात् स्वरूप में सम्पूर्णतया प्रवृत्ति होती है । इस अवस्था मे किसी भी प्रकार के दोष की सम्भावना नही रहती । अन्त मे ग्रात्मा को अखंड आनन्दरूप अनन्त सुख की प्राप्ति होती है जिसे भारतीय दार्शनिको ने मोक्ष अथवा निर्वाण कहा है तथा जो सम्यक्विचार एव सदाचार का ध्येय माना गया है और जिसमे सम्यग्दृष्टि व सच्चारित्र का पर्यवसान होता है । मे
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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