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________________ ४६ : जैन आचार प्राप्त होने पर चित्त की चंचलता और कम हो जाती है जिससे मन को और अधिक स्थिर किया जा सकता है। यहां मीमांसा गुण की प्राप्ति होती है जिससे व्यक्ति की सदसत्परीक्षणशक्ति विशेष बढ जाती है। उसका बोध तारे की प्रभा के समान होता है। जैसे तारा एकसा प्रकाश देता है वैसे ही इस दृष्टिवाले प्राणी का बोध एकसा स्पष्ट एवं स्थिर होता है। उसका चारित्र स्वभावतः निरतिचार होता है, अनुष्ठान शुद्ध होता है, आचरण प्रमादरहित होता है, आशय उदार एवं गंभीर होता है। भवउद्वेग के पूर्ण विकास के कारण उसका संसारसम्बन्धी राग नष्टप्रायः हो जाता है-माया व ममता से उसे अन्तःकरणपूर्वक विरक्ति हो जाती है। उसका मन श्रुतधर्म मे बहुत आसक्त रहता है। उसकी कर्मप्रचुरता धीरे-धीरे कम होती जाती है। प्रभादृष्टि व ध्यान : प्रभा नामक सातवी दृष्टि मे ध्यान नामक योगांग की प्राप्ति होती है। किसी एक पदार्थ पर अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त होने वाली चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहते हैं । यह ध्येय वस्तु मे होने वाली एकाकार चित्तवृत्ति के प्रवाह के रूप मे प्रस्फुटित होता है। धारणा मे चित्तवृत्ति की स्थिरता एकदेशीय तथा अल्पकालीन होती है जबकि ध्यान मे वह प्रवाहरूप तथा दीर्घकालीन होती है। प्रभादृष्टि मे बोध सूर्य की प्रभा के समान होता है जो लंबे समय तक अतिस्पष्ट रहता है। यहाँ प्रतिपत्ति गुण की प्राप्ति होती है अर्थात् कान्तादृष्टि मे विचारित-परीक्षित-मीमासित तत्त्व का ग्रहण होता है-अमल प्रारंभ होता है। सर्व व्याधियो के
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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