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________________ जैनाचार की भूमिका १९ भी माननी पड़ती है। पुनर्जन्म अथवा परलोक कर्म का फल है। मृत्यु के बाद प्राणी अपने गति नाम कर्म के अनुसार पुन. मनुष्य, तिर्यश्च, नरक अथवा देव गति मे उत्पन्न होता है । आनुपूर्वी नाम कर्म उसे अपने उत्पत्तिस्थान पर पहुंचा देता है । स्थानान्तरण के समय जीव के साथ दो प्रकार के सूक्ष्म शरीर रहते हैं। तैजस और कार्मण औदारिकादि स्थूल शरीर का निर्माण अपने उत्पत्तिस्थान पर पहुंचने के बाद प्रारम्भ होता है । इस प्रकार जैन कर्मशास्त्र में पुनर्जन्म की सहज व्यवस्था की गई है। कर्मवन्ध का कारण कषाय अर्थात् राग-द्वेपजन्य प्रवृत्ति है। इससे विपरीत प्रवृत्ति कर्ममुक्ति का कारण बनती है । कर्ममुक्ति के लिए दो प्रकार की क्रियाएँ आवश्यक हैं । नवीन कर्म के उपार्जन का निरोध एवं पूर्वोपाजित कर्म का क्षय । प्रथम प्रकार की क्रिया का नाम संवर तथा द्वितीय प्रकार की क्रिया का नाम निर्जरा है। ये दोनो क्रियाएँ क्रमश आस्रव तथा बन्ध से विपरीत हैं। इन दोनो की पूर्णता से आत्मा की जो स्थिति होती है अर्थात् आत्मा जिम अवस्था को प्राप्त होती है उसे मोक्ष कहते हैं। यही कर्ममुक्ति है। नवीन कर्मों के उपार्जन का निरोध अर्थात् संवर निम्न कारणो से होता है:--गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीपहजय, चारित्र व तपस्या । सम्यक् योगनिग्रह अर्थात् मन, वचन व तन की प्रवृत्ति का सुकु नियन्त्रण गुप्ति है । सम्यक चलना, बोलना, खाना, लेनादेना आदि समिति कहलाता है। उत्तम प्रकार की क्षमा, मृदुता, ऋजुता, शुद्धता आदि धर्म के अन्तर्गत हैं। अनुप्रेक्षा में अनित्यत्व,
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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