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________________ । १८ : जैन आचार निर्जरा है। जव आत्मा से समस्त कर्म अलग हो जाते हैं तब उसकी जो अवस्था होती है उसे मोक्ष कहते है। जैन कर्मशास्त्र में प्रकृति-वन्ध के आठ प्रकार माने गये है अर्थात् कर्म की मूल प्रकृतियाँ आठ गिनाई गई हैं। ये प्रकृतियाँ प्राणी को भिन्न-भिन्न प्रकार के अनुकूल एव प्रतिकूल फल प्रदान करतो है। इनके नाम इस प्रकार हैं .--१.ज्ञानावरणीय २. दर्शनावरणीय, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६ नाम, ७. गोत्र, ८ अन्तराय । इनमें से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय व अन्तराय-ये चार प्रकृतियाँ घाती कहलाती है क्योकि इनसे आत्मा के चार मूल गुणो-ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य का घात होता है। शेष चार प्रकृतियाँ अघाती हैं क्योकि ये किसी आत्मगुण का घात नही करती । ये शरीर से सम्बन्धित होती हैं। ज्ञानावरणीय प्रकृति आत्मा के ज्ञान अर्थात् विशेष उपयोगरूप गुण को आवृत करती है। दर्शनावरणीय प्रकृति आत्मा के दर्शन अर्थात् सामान्य उपयोगरूप गुण को आच्छादित करती है। मोहनीय प्रकृति आत्मा के स्वाभाविक सुख मे वाधा पहुंचाती है । अन्तराय प्रकृति से वीर्य अर्थात् आत्मशक्ति का नाश होता है । वेदनीय कर्मप्रकृति शरीर के अनुकूल एवं प्रतिकूल सवेदन अर्थात् सुख-दुःख के अनुभव का कारण है। आयु कर्मप्रकृति के कारण नरक, तिर्यच, देव एवं मनुप्य भव के काल का निर्धारण होता है। नाम कर्मप्रकृति के कारण नरकादि गति, एकेन्द्रियादि जाति, औदारिकादिशरीर आदि की प्राप्ति होती है । गोत्र कर्मप्रकृति प्राणियो के लौकिक उच्चत्व एवं नीचत्व का कारण है। कर्म की सत्ता मानने पर पुनर्जन्म की सत्ता
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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