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________________ १२ : जैन आचार करना ही वास्तविक सुख है। यह सुख जिसे हमेशा के लिए प्राप्त हो जाता है वह कर्मजन्य सुख-दु.ख से मुक्त हो जाता है । यही मोक्ष, मुक्ति अथवा निर्वाण है। कर्म से मुक्त होना इतना आसान नहीं है। योग की साधना करना इतना सरल नही है। इसके लिए धीरे-धीरे निरन्तर प्रयत्न करना पडता है। आचार व विचार की अनेक कठिन अवस्थाओ से गुजरना होता हैं । आचार के अनेक नियमों एवं विचार के अनेक अंकुशो का पालन करना पड़ता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए विभिन्न आत्मघादो दर्शनो ने कर्ममुक्ति के लिए आचार के विविध नियमो का निर्माण किया तथा आत्मविकास के विभिन्न अंगों तथा रूपों का प्रतिपादन किया । आत्मविकास: वेदान्त मे सामान्यतया आत्मिक विकास के सात अंग अथवा सोपान माने गये हैं। प्रथम अग का नाम शुभ इच्छा है। इसमे वैराग्य अर्थात् सम्यक् पथ पर जाने की भावना होती है। द्वितीय अग विचारणारूप है। इसमे शास्त्राध्ययन, सत्संगति तथा तत्त्व का मूल्याकन होता है। तृतीय अग तनुमानस रूप है जिसमे इन्द्रियो और विषयो के प्रति अनासक्ति होती है। इसके बाद की जो अवस्था है उसमे मानसिक विषयो का निरोध प्रारम्भ होकर मन को शुद्धि होती है। इस अवस्था का नाम सत्यापत्ति है। इसके बाद पदार्थभावनो अवस्था आती है जिसमें बाह्य वस्तुप्रो का मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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