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________________ जैनाचार की भूमिका : ११ के लिए सेवा-शुश्रूषा । इसी व्यवस्था अर्थात् आचारसंहिता का नाम वर्णाश्रम-धर्म अथवा वर्णाश्रम-व्यवस्था है। कर्ममुक्तिः भारतीय आचारशास्त्र का सामान्य आधार कर्मसिद्धान्त है। कम का अर्थ है चेतनाशक्ति द्वारा की जानेवाली क्रिया का कार्यकारणभाव । जो क्रिया अर्थात् आचार इस कार्य-कारण की परम्परा को समाप्त करने में सहायक है वह आचरणीय है। इससे विपरीत आचार त्याज्य है। विविध धर्मग्रन्थो, दर्शनग्रन्थो एव आचारग्रन्थो मे जो विधिनिषेध उपलब्ध हैं, इसी सिद्धान्त पर आधारित हैं। योग-विद्या का विकास इस दिशा में एक महान् प्रयत्न है। भारतीय विचारको ने कर्ममुक्ति के लिए ज्ञान, भक्ति एवं ध्यान का जो मार्ग बताया है वह योग का ही मार्ग है । ज्ञान, भक्ति एवं ध्यान को योग की ही संज्ञा दी गई है। इतना ही नहीं, अनासक्त कर्म को भी योग कहा गया है। आत्मनियन्त्रण अर्थात् चित्तवृत्ति के निरोध के लिए योग अनिवार्य है। योग चेतना की उस अवस्था का नाम है जिसमे मन व इन्द्रियाँ अपने विषयो से विरत होने का अभ्यास करते हैं। ज्योज्यो योग की प्रक्रिया का विकास होता जाता है त्यो-त्यो आत्मा अपने-आप में लीन होती जाती है। योगी को जिस आनन्द व सुख की अनुभूति होती है वह दूसरो के लिए अलभ्य है । वह आनन्द व सुख वाह्य पदार्थो पर अवलम्बित नही होता अपितु आत्मावलम्बित होता है । आत्मा का अपनी स्वाभाविक विशुद्ध अवस्था मे निवास
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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