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________________ जैनाचार की भूमिका ९ फलवती होती है। परिणामत. यज्ञयागादि का प्रादुर्भाव हुआ एवं देवो को प्रसन्न करने की एक विशिष्ट आचार-पद्धतिने जन्म लिया। इस आचारपद्धति का प्रयोजन लोगो की ऐहिक सुख-समृद्धि एवं सुरक्षा था। लोगो के हृदय मे सत्य, दान, आदि के प्रति मान था। विविध प्रकार के नियमो, गुणो, दण्डो के प्रवर्तको के रूप मे विभिन्न देवो की कल्पना की गई। औपनिषदिक रूप: ___ उपनिषदों मे ऐहिक सुख को जीवन का लक्ष्य न मानते हुए श्रेयस् को परमार्थ माना गया है तथा प्रेयस् को हेय एव श्रेयस् को उपादेय बताया गया है। इस जीवन को अन्तिम सत्य न मानते हुए परमात्मतत्त्व को यथार्थ कहा गया है। आत्म-तत्त्व का स्वरूप समझाते हुए इसे शरीर, मन, इन्द्रियों से भिन्न वताया गया है। इसी दार्शनिक भित्ति पर सदाचार, सन्तोप, सत्य आदि आत्मिक गुणो का विधान किया गया है एव इन्हें आत्मानुभूति के लिए आवश्यक बताया गया है। इन गुणो के आचरण से श्रेयस् की प्राप्ति होती है । श्रेयस् के मार्ग पर चलनेवाले विरले ही होते हैं। ससार के समस्त प्रलोभन श्रेयस् के सामने नगण्य हैं-तुच्छ है । सूत्र, स्मृतियाँ व धर्मशास्त्र : सूत्रो, स्मृतियों व धर्मशास्त्रो में मनुष्य के जीवन की निश्चित योजना दृष्टिगोचर होती है। इनमे मानव-जीवन के कर्तव्य-अकर्तव्यो
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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