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________________ जैनाचार की भूमिका : ७ विचार अर्थात् धर्म व दर्शन अभिन्न हैं । इनमे वस्तुतः कोई भेद नही | आचार की सत्यता विचार में ही पाई जाती है एवं विचार का पर्यवसान आचार मे ही देखा जाता है । दूसरी विचारधारा के अनुसार आचार व विचार अर्थात् धर्मं व दर्शन एक-दूसरे से भिन्न हैं । तर्कशील विचारक का इससे कोई प्रयोजन नही कि श्रद्धाशील आचरणकर्ता किस प्रकार का व्यवहार करता है । इसी प्रकार श्रद्धाशील व्यक्ति यह नही देखता कि विचारक क्या कहता है । तटस्थ दृष्टि से देखने पर यह प्रतीत होता है कि आचार और विचार व्यक्तित्व के समान शक्तिवाले अन्योन्याश्रित दो पक्ष हैं । इन दोनों पक्षो का सतुलित विकास होने पर ही व्यक्तित्व का विशुद्ध विकास होता है । इस प्रकार के विकास को हम ज्ञान और क्रिया का संयुक्त विकास कह सकते है जो दुखमुक्ति के लिए अनिवार्य है । 1 आचार और विचार की अन्योन्याश्रितता को दृष्टि मे रखते हुए भारतीय चिन्तको ने धर्म व दर्शन का साथ-साथ प्रतिपादन किया | उन्होने तत्त्वज्ञान के साथ ही साथ आचारशास्त्र का भी निरूपण किया एवं बताया कि ज्ञानविहीन आचरण नेत्रहीन पुरुष की गति के समान है जबकि आचरणरहित ज्ञान पंगु पुरुष की स्थिति के सदृश है। जिस प्रकार अभीष्ट स्थान पर पहुँचने के लिए निर्दोष आँखे व पैर दोनों आवश्यक हैं, उसी प्रकार आध्यात्मिक सिद्धि के लिए दोषरहित ज्ञान व चारित्र दोनों श्रनिवार्य हैं । भारतीय विचार- परम्पराओ मे आचार व विचार दोनों को
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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