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________________ श्रावकाचार : १०१ गध, रस व स्पर्श भोगरूप हैं क्योकि ये तीनो इन्द्रियाँ अपने-अपने विपय के भोग से ही तृप्त होती हैं। इन कामरूप एवं भोगरूप विषयो मे अत्यन्त आसक्ति रखना अर्थात् इनकी अत्यधिक आकाक्षा करना कामभोग-तीवाभिलाषा अतिचार कहलाता है। वाजीकरण आदि के सेवन द्वारा अथवा कामशास्त्रोक्त प्रयोगो द्वारा मैथुनेच्छा को अधिकाधिक उद्दीप्त करना भी कामभोग-तीवाभिलापारूप अतिचार है। अपनी पत्नी के साथ अमर्यादित ढग से मैथुन का सेवन करना भी कामभोग-तीव्राभिलाषा अतिचार ही कहलाता है क्योकि इससे सन्तोषगुण का घात होता है तथा मन मे सदा कामोत्तेजना बनी रहती है जो अपने आप के लिए तथा अपनी पत्नी के लिए दुखदायी होती है। उपर्युक्त अतिचारो से सदाचार दूषित होता है। अतः श्रावक को इनसे बचना चाहिये । श्राविका के लिए स्वपति-सन्तोषरूप स्थूल मैथुन-विरमण व्रत का तथा तद्विषयक समस्त अतिचारो का आवश्यक परिवर्तन के साथ यथोचित शब्दों मे सयोजन कर लेना चाहिए। ५ इच्छा-परिमाण-मनुष्य की इच्छा को आकाश के समान अनन्त कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि यदि इच्छा पर नियन्त्रण न किया जाय तो वह कदापि तृप्त नही हो सकती। इच्छातृप्ति का श्रेष्ठ उपाय है इच्छा-नियन्त्रण । गृहस्थाश्रम मे रहते हुए इच्छाओ का सर्वथा त्याग संभव नहीं। हा, इच्छाओ की मर्यादा अवश्य वांधी जा सकती है । इसी इच्छामर्यादा अथवा इच्छानियन्त्रण का नाम है इच्छा-परिमाण । यह श्रावक का पांचवा अणुव्रत है। जव इच्छा परिमित हो जाती है तब तद्
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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